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डोनाल्ड ट्रंप की लॉबिंग के बावजूद माचाडो को क्यों मिला नोबेल ?

डोनाल्ड ट्रंप की लॉबिंग के बावजूद माचाडो को क्यों मिला नोबेल ?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का शांति का नोबेल पाने का सपना अधूरा रह गया है. ये पुरस्कार वेनेजुएला की विपक्षी नेता मारिया माचोडो को मिला है. आइए समझते हैं कि आखिर क्यों ट्रंप की नोबेल लॉबिंग नाकाम हो गयी और माचाडो ये पुरस्कार जीत गई?

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खुद को शांति का दूत बताते रहे, महीनों तक लॉबिंग करते रहे, मगर फिर भी नोबेल पुरस्कार किसी और को मिल गया…तो सवाल उठता है- क्या नोबेल अब राजनीति का खेल बन गया है? या फिर नोबेल कमेटी अब भी अपने सिद्धांतों पर अडिग है? वेनेज़ुएला की महिला नेता मारिया कोरीना माचाडो आखिर कौन हैं, जिन्होंने दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति को पीछे छोड़ दिया? नोबेल पुरस्कार का इतिहास, राजनीति, और यह फैसला ट्रंप की छवि पर क्या असर डाल सकता है- जानिए विस्तार से .

नोबेल की कहानी: एक वैज्ञानिक से शांति के प्रतीक तक

अल्फ्रेड बर्नहार्ड नोबेल का नाम सभी ने सुना है, लेकिन क्या आप जानते हैं, वो डायनामाइट के आविष्कारक थे. १८३३ में स्वीडन में जन्मे नोबेल वैज्ञानिक थे, इंजीनियर थे, और उद्योगपति भी. उन्होंने ३५० से ज्यादा पेटेंट करवाए. लेकिन उनका सबसे बड़ा आविष्कार- ‘डायनामाइट’ जितना उपयोगी था, उतना ही विनाशकारी भी.

कहा जाता है कि जब एक फ्रांसीसी अख़बार ने गलती से बर्नहार्ड नोबेल के मृत्यु की खबर छाप दी- तो उसकी हेडलाइन थी: The Merchant of Death is Dead यानी मौत का व्यापारी मर गया. नोबेल ये देखकर भीतर तक हिल गए. उन्हें लगा कि अगर मैं मर गया, तो मेरी पहचान एक विनाशक की होगी, ना की एक सृजनकर्ता की. और यहीं से उन्होंने ठान लिया- अपनी संपत्ति मानवता की भलाई में लगाएंगे .

१८९५ में उन्होंने वसीयत लिखी- अपनी अधिकांश संपत्ति एक ट्रस्ट में रखने का आदेश दिया, जिसका ब्याज हर साल उन लोगों को दिया जाए जिन्होंने मानवता के लिए सबसे बड़ा फायदा पहुँचाया हो. १९०१ में पहली बार नोबेल पुरस्कार दिए गए- भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, साहित्य, और शांति के लिए. अर्थशास्त्र का पुरस्कार बाद में जुड़ा, जिसे स्वीडिश सेंट्रल बैंक ने १९६८ में नोबेल मेमोरी के रूप में स्थापित किया.

एक पुरस्कार, दो देश: क्यों नॉर्वे में दिया जाता है शांति का नोबेल पुरस्कार ?
अक्सर लोग पूछते हैं- अल्फ्रेड नोबेल तो स्वीडिश थे, फिर शांति पुरस्कार नॉर्वे में क्यों दिया जाता है? तो असल में उस वक्त स्वीडन और नॉर्वे एक संयुक्त राजशाही के तहत थे. नोबेल को लगता था कि स्वीडन की राजनीति बहुत सैन्यवादी हो गई है, जबकि नॉर्वे को ज़्यादा तटस्थ और शांतिप्रिय देश माना जाता था.
इसीलिए उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा कि शांति पुरस्कार नॉर्वेजियन संसद की समिति देगी. उसके बाद से आज तक बाकी पाँच पुरस्कार स्टॉकहोम (स्वीडन) में दिए जाते हैं.

ट्रंप का नोबेल सपना: लॉबिंग, उम्मीदें और निराशा
२०२५ के नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा से पहले, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का नाम कई बार मीडिया में गूंजा. व्हाइट हाउस के सूत्रों ने भी संकेत दिए थे कि राष्ट्रपति ने व्यक्तिगत रूप से कई देशों के नेताओं से नोमिनेशन सपोर्ट मांगा है. ट्रंप ने दावा किया कि उन्होंने इज़राइल और हमास के बीच संघर्ष विराम में भूमिका निभाई, यूक्रेन-रूस वार्ता को रफ्तार दी, और एशिया में स्थिरता लाने के लिए रक्षा समझौतों को आगे बढ़ाया. अमेरिकी कॉमर्स सेक्रेटरी हावर्ड लुटनिकने ट्रंप की तारीफ करते हुए कहा था- राष्ट्रपति ट्रम्प ने आधुनिक इतिहास में वैश्विक स्थिरता के लिए किसी भी अन्य व्यक्ति से ज़्यादा काम किया है। वे नोबेल पुरस्कार के हक़दार हैं।

लेकिन जब नॉर्वे की नोबेल कमेटी ने नाम घोषित किया — तो उसमें ट्रंप का नाम नहीं था.नोबेल शांति पुरस्कार-२०२५ की विजेता मारिया कोरिना मचाडो, बनीं जो वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता हैं. अमेरिकी मीडिया ने इसे ट्रंप के लिए राजनीतिक झटका कहा. न्यू यॉर्क टाइम्स ने लिखा-ट्रम्प ने नोबेल के लिए कड़ी पैरवी की, लेकिन वे उस समिति को मनाने में असफल रहे जो राजनीतिक शक्ति को नहीं, बल्कि नैतिक साहस को पुरस्कृत करती है। नोबेल समिति से जुड़े लोगों का मानना था कि ट्रंप की पहलें अभी स्थायी शांति में तब्दील नहीं हुई हैं. उनकी नीतियाँ- खासकर इमीग्रेशन, क्लाइमेट और विदेश नीति के मामले में विभाजनकारी रही हैं.

कौन हैं मारिया कोरीना माचाडो ? और क्यों मिली उन्हें जीत ?

मारिया कोरीना माचाडो वेनेज़ुएला की विपक्षी नेता हैं, जिन्होंने वर्षों तक अपने देश में लोकतंत्र की लड़ाई लड़ी है. जब वहाँ की सरकार ने प्रेस की आज़ादी और चुनावी पारदर्शिता पर शिकंजा कसा, माचादो ने शांतिपूर्ण विरोध और संगठन के जरिए लोगों की आवाज बुलंद की. नोबेल कमेटी ने अपने बयान में कहा- Maria Corina Machado has shown exceptional courage and resilience in defending democracy through peaceful means. यानि “मारिया कोरिना मचाडो ने शांतिपूर्ण तरीकों से लोकतंत्र की रक्षा करने में असाधारण साहस और लचीलापन दिखाया है.”

यानी, नोबेल का संदेश साफ़ था- सत्ता राजनीति पर हावी हो सकती है, लेकिन शांति धैर्य और सिद्धांत को पुरस्कृत करती है . मारिया की जीत सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत मानी जा रही है. वहीं अमेरिका में, ट्रंप समर्थक इसे राजनीतिक पक्षपात कह रहे हैं.

ओबामा को नोबेल क्यों मिला?

ट्रम्प का कहना है कि ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार बिना किसी कारण के मिला – उन्होंने केवल हमारे देश को बर्बाद करने का काम किया है. वह यह भी आरोप लगते हैं कि , ‘ओबामा एक अच्छे राष्ट्रपति नहीं थे’

अमेरिकी दबाव और वैश्विक परिदृश्य
अब सवाल उठता है- क्या नोबेल कमेटी अमेरिकी दबाव में झुकी? तो विश्लेषक कहते हैं कि इसका उल्टा हुआ है. नोबेल कमेटी ने यह संदेश दिया कि पुरस्कार किसी सत्ता केंद्र से प्रभावित नहीं होगा. नोबेल की फिलॉसफी है प्रचार के बिना शांति. दूसरी तरफ, दुनिया में कई बदलाव हुए हैं. रूस-यूक्रेन, गाज़ा संघर्ष, चीन की आक्रामक नीति और पश्चिमी ब्लॉक की टूटती एकजुटता ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को जटिल बना दिया है. ऐसे में, शांति का मतलब सिर्फ युद्धविराम नहीं- बल्कि लोकतंत्र, मानवाधिकार और सामाजिक समानता की रक्षा भी है.

नोबेल का धन: क्या अब भी सुरक्षित है?
अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत में ३१ मिलियन स्वीडिश क्रोनर छोड़े गए थे- जिनकी कीमत आज के हिसाब से लगभग ₹२५०० करोड़ है. इस रकम को नोबेल फाउंडेशन ने अलग अलग निवेशों में लगाया, जिससे हर साल ब्याज की रकम से पुरस्कार दिए जाते हैं. आज भी ये कोष पूरी तरह सुरक्षित है. २०२५ में एक नोबेल पुरस्कार की राशि लगभग ११ मिलियन स्वीडिश क्रोनर (₹८ करोड़ रुपए) है. यानि, १२३ साल बाद भी नोबेल की विरासत वैसी ही है- अटूट, आत्मनिर्भर, और उद्देश्यपूर्ण.

एक व्यक्ति की आत्मग्लानि निकले विचार ने दुनिया के सबसे ईमानदार प्रयासों को सम्मान देने का काम किया

ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप का गुस्सा समझा जा सकता है- उन्होंने उम्मीदें पालीं, मेहनत की, प्रचार किया. लेकिन नोबेल की कसौटी पर, पावर नहीं बल्कि प्रिंसिपल्स जीतते हैं. मारिया माचाडो की जीत दुनिया को यह याद दिलाती है कि असली शांति सत्ता के आदेश से नहीं, बल्कि साहस और संवेदना से आती है. अल्फ्रेड नोबेल की वही विरासत आज भी जीवित है- एक व्यक्ति की आत्मग्लानि से निकला एक विचार, जो हर साल दुनिया के सबसे ईमानदार प्रयासों को सम्मान देता है.

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