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लद्दाख के बाद असम में हजारों आदिवासी लोग सड़कों पर,जानिए क्या है मटक समुदाय की मांगें?

लद्दाख के बाद असम में हजारों आदिवासी लोग सड़कों पर,जानिए क्या है मटक समुदाय की मांगें?

असम में मटक समुदाय के साथ दूसरे अन्य आदिवासी समुदाय के लोग मशाल लेकर सड़कों पर उतरे हैं . एसटी दर्जा पाने की मुख्य मांग लेकर यह समुदाय दिल्ली की तरफ कुछ करने को तैयार है. सरकार पर वायदा खिलाफी का आरोप लगाते हुए मटक समुदाय के लोगों ने सीएम की बातचीत का ऑफर ठुकरा दिया है. जानिए क्या है मटक समुदाय का इतिहास? इनकी मांगें अब तक अधूरी क्यों? क्यों उन्हें बार-बार आंदोलन करना पड़ रहा है?

डिब्रूगढ़ : लद्दाख के बाद असम में हजारों लोग सड़कों पर उतर आये हैं। असम में मटक समुदाय समेत कई अन्य आदिवासी समुदाय के लोग सड़कों पर उतर आए हैं. वे मशाल जुलूस से लेकर रैली, धरना-प्रदर्शन तक कर रहे हैं. आंदोलन की कमान युवाओं के हाथों में है. इनकी मुख्य मांग एसटी दर्जा पाना है. इन रैलियों में पहुंच रही भीड़ ने राज्य सरकार को संकट में डाल दिया है. मटक समुदाय का संबंध असम के इतिहास से गहराई से जुड़ा है. 18वीं शताब्दी में कमजोर पड़ रहे अहोम राज्य के परिदृश्य में मटक एक ताकतवर शक्ति के रूप में उभरे. मटक लोगों का मूल क्षेत्र ऊपरी असम, विशेषकर डिब्रुगढ़ और तिनसुकिया जिलों के आसपास फैला हुआ है.

चुनावी मोड़ पर खड़ी राज्य सरकार पर वायदा खिलाफी का आरोप लगाते हुए मटक समुदाय के लोगों ने मुख्यमंत्री की बातचीत का ऑफर ठुकरा दिया है.असम केवल अपनी चाय और प्राकृतिक सुंदरता के लिए ही नहीं, बल्कि विविध जातीय और सांस्कृतिक समुदायों के लिए भी जाना जाता है. यहां के आदिवासी समूह सदियों से अपनी पहचान, अधिकार और सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए संघर्षरत रहे हैं. हाल ही में राज्य की सड़कों पर “मशाल यात्रा” और दिल्ली तक जाने की चेतावनी के साथ आवाज़ बुलंद करने वाला मटक समुदाय इस लंबे संघर्ष का ताज़ा अध्याय है. यह आंदोलन सिर्फ किसी एक जनजाति का नहीं, बल्कि असम के आदिवासी समूहों के वर्षों पुराने सवालों और अधूरी मांगों की गूंज है.

राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी
इन समुदायों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) में शामिल करने की मांग लंबे समय से उठती रही है. वर्तमान में इनकी पहचान अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में है, लेकिन इनकी मुख्य मांग अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा प्राप्त करना है.ययह समुदाय दावा करते हैं कि असम में चाय बागानों और आरक्षित वनों के विस्तार के कारण आदिवासी समूहों की ज़मीन परंपरागत अधिकार से छीनी जाती रही, जिससे आज भी भूमि सुरक्षा की समस्या गंभीर बनी हुई है.तो दूसरी तरफ शिक्षा में पिछड़ापन और सरकारी नौकरियों में अवसरों की कमी समुदाय को मुख्यधारा से दूर रखे हुए है.विविध आदिवासी समुदायों की भाषा, परंपरा और लोककला निरंतर कमजोर होती जा रही है, जो उनके अस्तित्व के लिए चुनौती है.

मटक आंदोलन का मुख्या कारण
वर्ष २०१९ में केंद्र सरकार द्वारा छह समुदायों (मटक, मोरान, चाय जनजाति, ताई अहोम, चुटिया और कोच-राजबोंगशी) को एसटी सूची में शामिल करने की प्रक्रिया आरंभ होने की बात कही गई थी. हालांकि विभिन्न समितियों और सांसदों की सिफारिशों के बावजूद अभी तक कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया.
सरकार द्वारा बार-बार आश्वासन दिए जाने के बावजूद लंबे समय से ठोस नीति न बनने से समुदायों में नाराज़गी गहराती जा रही है. असम पहले से ही जातीय और भाषाई असमानताओं से जूझ रहा है. नए समूहों को एसटी सूची में जोड़ने से आरक्षण के लिए पहले से पात्र समूहों को अपना हिस्सा घटने का भय है.
चुनावी राजनीति में इन समुदायों का वोट बैंक महत्वपूर्ण है, लेकिन ठोस निर्णय लेना सरकार के लिए राजनीतिक जोखिम है.

कानूनी और प्रशासनिक अड़चनें
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि सभी समुदाय पूरी तरह से जनजातीय मानकों को पूरा नहीं करते, जिससे लगातार विवाद बना रहता है.
मटक आंदोलन अकेला नहीं है. असम में कई आदिवासी समुदाय दशकों से अपने अधिकारों की आवाज़ बुलंद कर रहे हैं.
बोडो समुदाय ने अलग राज्य की मांग से लेकर स्वायत्त परिषद तक लंबा संघर्ष किया. ये समूह स्वायत्तता और आदिवासी पहचान की सुरक्षा को लेकर लड़ते रहे हैं. आंदोलन के केंद्रित मुद्दे, आर्थिक उपेक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी और सांस्कृतिक संरक्षण, सबसे अहम् है.

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