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सद्गृहस्थ की चार संपत्तियां

सद्गृहस्थ की चार संपत्तियां

तथागत बुद्ध ने अपने अग्र उपासक गृहपति अनाथपिडिक को उपदेश देते हुए कहा कि -इन चारों प्रिय , मनोरम , सुखद अभिलाषाओं की पूर्ति के चार धम्म साधन हैं, जिनसे दुर्लभ सुलभ हो जाता है I

ये चार साधन हैं –

श्रद्धा – संपत्ति ,

शील – संपत्ति ,

त्याग – संपत्ति और

प्रज्ञा – संपत्ति ।

1. क्या है श्रद्धा – संपत्ति ?

किसी सम्यक संबुद्ध की बोधि के प्रति श्रद्धा जागती है , उनके गुणों के प्रति श्रद्धा जागती है । ऐसे हैं -भगवान जो अरहंत है ,

सम्यक संबद्ध है , विद्या और आचरण संपन्न हैं , सुगत हैं , लोक के ज्ञाता हैं , अनुपम हैं । गलत रास्ते चलने वालों को सही रास्ते चलाने में कुशल हैं । देव – मनुष्यों के शास्ता हैं , आचार्य हैं । बुद्ध हैं , भगवान हैं । संप्रदायविहीन शुद्ध-धम्म पर श्रद्धा जागती है- धम्म स्पष्ट है ,सुआख्यात

है , सांदृष्टिक है , अकालिक है , कोई भी आये और इसे अनुभव करके देखे, उन्नति की ओर ले जाने वाला है और प्रत्येक समझदार व्यक्ति के लिए धारण कर सकने योग्य है । संघ की पवित्रता के प्रति श्रद्धा जागती है – ये संघ -संमार्गगामी हैं , ऋजमार्गगामी हैं, ज्ञानमार्गगामी हैं,समीचीनमार्गगामी है ; शील . समाधि और प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होकर अन्-अरिय से अरिय बन गये हैं , निर्वाणदर्शी हो गये हैं । अतः संत हैं , निर्मल चित्त हैं । इसी कारण पूज्य हैं , वरेण्य हैं आतिथेय्य हैं , दाक्षिणेय्य हैं । लोक में अनुपम पुण्य – क्षेत्र हैं । सद्गृहस्थ जब श्रद्धा – संपत्ति से संपन्न होता है, तब उसके चित्त की कठोरता दूर होती है , मृदुता आती है । कटुता दूर होती है , मधुरता आती है । कुटिलता दूर होती है , ऋजुता , सरलता आती है । ऐसा व्यक्ति किसी को धोखा देकर संपदा नहीं बटोरता । धम्मपूर्वक ही संपदा अर्जित करता है और संपदा अर्जित करने में सफल होता है ।

2. क्या है शील संपत्ति ?

जो सद्गृहस्थ शील – संपन्न होता है ,

वह किसी प्राणी की हत्या नहीं करता ,

चोरी नहीं करता , व्यभिचार नहीं करता ,

झूठ नहीं बोलता , मादक पदार्थो का सेवन नहीं करता । शरीर या वाणी से कोई ऐसा दुष्कर्म नहीं करता जिसके कारण उसे निंदा का पात्र बनना पड़े । यों शील संपन्न हुआ व्यक्ति अपयश का भागी नहीं होता । यशभागी ही होता है ।

3. क्या है त्याग संपत्ति ?

सद्गृहस्थ केवल -संचय , संग्रह , परिग्रह के लिए ही धन अर्जित नही करता ।

वह मात्सर्य – रहित चित्त का जीवन जीता है जो उपार्जित करता है उसका संविभाग करता है । उसे बांटता है । प्रसन्न चित्त से , खुले दिल से , खुले हाथों दान देता है । यही सद्गृहस्थ की दान – संपदा है ,जिससे संपन्न होकर जब वह किसी सत्पुरुष को -भोजन ,वस्त्र ,औषधि , आवास का दान देता है । तो आयुबल का ही दान देता है जिसके फलस्वरूप उसे स्वयं आयुबल प्राप्त होता है । वह दीर्घजीवी होता है , स्वस्थ होता है ।

4. क्या है प्रज्ञा – संपत्ति ?

सद्गृहस्थ शील – सदाचार का जीवन जीता हुआ चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास कर

काया में कायानुपस्सना ,

वेदना में वेदनानुपस्सना ,

चित्त में चित्तानुपस्सना और

धम्म में धम्मानुपस्सना करता है ।

यों अंतर्मुखी होकर ध्यान साधना का अभ्यास करता है,तो देखता है कि -किस प्रकार समय – समय पर , पांच आवरण -नीवरण बाधक बन कर उसके चित्त पर छाये जा रहे हैं , मानो पांच दुश्मन उसके सिर पर सवार हो गये हों ।

कभी – कभी वह देखता है -उसका चित्त विषम लोभ से अभिभूत होता जा रहा है ,

जिसकी वजह से जो नहीं करना चाहिए वह कर बैठता है । जो करना चाहिए वह नहीं कर पाता । अकरणीय के करने से और करणीय के न करने से उसके सुख व ऐश्वर्य की हानि होती है । यही होता है जब उसका चित्त –द्वेष – दौर्मनस्य से भर उठता है अथवा आलस – प्रमाद से भर उठता है अथवा बेचैनी व आत्मग्लानि से भर उठता है अथवा शंका – संदेह से भर उठता है । गृहस्थ श्रावक समय – समय पर प्रकट होने वाले इन पांचों आवरण – नीवरणों को दुश्मनों के रूप में पहचानता है और समझता है कि ये चित्त के क्लेश हैं , मैल हैं। यों समझ कर उन्हें प्रयत्नपूर्वक दूर करता है । उन नीवरणों का उच्छेदन कर स्थूल – स्थूल सत्य का दर्शन करता हुआ उनका विभाजन , विघटन , विश्लेषण करता है और सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार करता हुआ परम सत्य निर्वाण का दर्शन कर लेता है ।

अन्-अरिय से अरिय बन जाता है ।

ऐसा सद्गृहस्थ महाप्रज्ञ कहलाता है ।

प्रज्ञा – संपदा से संपन्न होता है ।

प्रज्ञा के बल पर परम सत्य की ओर यात्रा करता हुआ वह अपने उन सभी कर्म – संस्कारों का क्षय कर लेता है जो कि –

अपायगति , अधोगति की ओर ले जाने वाले हैं । निर्वाण का साक्षात्कार कर गृहस्थ जब स्रोतापन्न हो जाता है , मुक्ति के स्रोत में पड़ जाता है, तो – अधोगति से पूर्णतया छुटकारा पा लेता है । उसके जो थोड़े से जन्म शेष रह जाते हैं वे ऊर्ध्वलोक के ही होते है । इस प्रकार प्रज्ञा में पुष्ट होकर गृहस्थ अपनी सद्गति के संबंध में निश्चित और आश्वस्त हो जाता है ।

( संदर्भ: अंगुत्तरनिकाय, चौथा निपात )

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