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डॉ. आंबेडकर को ही भारतीय संविधान का निर्माता क्यों कहा जाता है?

डॉ. आंबेडकर को ही भारतीय संविधान का निर्माता क्यों कहा जाता है?

राष्ट्रनिर्माता डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान को राष्ट्र को समर्पित किया था। संविधान सभा के ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष 2015 में भारत सरकार ने 26 नवबंर को संविधान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारतीय संविधान को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में 26 नवम्बर 1949 को पूरा कर किया था। 26 जनवरी 1950 से संविधान अमल में लाया गया। संविधान संविधान सभा के 284 सदस्यों के हस्ताक्षर से पारित हुआ था। संविधान सभा के लिए कुल 389 सदस्य संख्या निर्धारित की गई थी। भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद यह संख्या घटकर 15 अगस्त 1947 को 324 रह गई। संविधान सभा की पहली बैठक में 207 सदस्य शामिल हो हुए।

प्रश्न यह उठता है कि जब संविधान सभा में हमेशा करीब 300 सदस्य हमेशा मौजूद रहे और सभी सदस्यों को संविधान के निर्माण में समान अधिकार प्राप्त था। तो आखिर क्यों डॉ. आंबेडकर को ही संविधान का मुख्य वास्तुकार या निर्माता क्यों कहा जाता हैँ? यह सिर्फ डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व और विचारों के समर्थक ही नहीं कहते, बल्कि भारतीय संविधान सभा के सदस्यों ने भी इसे स्वीकारा और विभिन्न अध्येताओं ने भी किसी न किसी रूप में इसे मान्यता दी। नेहरू के आत्मकथा लेखक माइकेल ब्रेचर ने आंबेडकर को भारतीय संविधान का वास्तुकार माना और उनकी भूमिका को संविधान के निर्माण में फील्ड जनरल के रूप में रेखांकित किया। (नेहरू : ए पोलिटिकल बायोग्राफी द्वारा माइकल ब्रेचर, 1959)।

जब कोई भी अध्येता कहता है कि डॉ. आंबेडकर संविधान के वास्तुकार थे। इसका निहितार्थ यह होता है कि जिस एक व्यक्तित्व की संविधान को साकार रूप देने में सबसे अधिक और निर्णायक भूमिका थी, तो वे निर्विवाद तौर वे थे-डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। यह दीगर बात है कि संविधान सभा के समक्ष संविधान प्रस्तुत करते हुए अपने अंतिम भाषण में डॉ. आंबेडकर ने गरिमा और विनम्रता के साथ इतने कम समय में इतना मुकम्मल और विस्तृत संविधान तैयार करने का श्रेय अपने सहयोगियों राउ और एस. एन. मुखर्जी को दिया। लेकिन पूरी संविधान सभा इस तथ्य से परिचित थी कि यह एक महान नेतृत्वकर्ता की अपने सहयोगियों के प्रति प्रेम और विनम्रता से भरा आभार है।

संविधान सभा ने मानी आंबेडकर की भूमिका

आंबेडकर संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे, जिसकी जिम्मेदारी संविधान का लिखित प्रारूप प्रस्तुत करना था. इस कमेटी में कुल 7 सदस्य थे. संविधान को अंतिम रूप देने में डॉ. आंबेडकर की भूमिका को रेखांकित करते हुए भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के एक सदस्य टी. टी. कृष्णमाचारी ने नवम्बर 1948 में संविधान सभा के सामने कहा था: ‘सम्भवत: सदन इस बात से अवगत है कि आपने ( ड्राफ्टिंग कमेटी में) में जिन सात सदस्यों को नामांकित किया है, उनमें एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया है और उनकी जगह अन्य सदस्य आ चुके हैं. एक सदस्य की इसी बीच मृत्यु हो चुकी है और उनकी जगह कोई नए सदस्य नहीं आए हैं. एक सदस्य अमेरिका में थे और उनका स्थान भरा नहीं गया. एक अन्य व्यक्ति सरकारी मामलों में उलझे हुए थे और वह अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे थे. एक-दो व्यक्ति दिल्ली से बहुत दूर थे और सम्भवत: स्वास्थ्य की वजहों से कमेटी की कार्यवाहियों में हिस्सा नहीं ले पाए. सो कुल मिलाकर यही हुआ है कि इस संविधान को लिखने का भार डॉ. आंबेडकर के ऊपर ही आ पड़ा है. मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि हम सब को उनका आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इस जिम्मेदारी को इतने सराहनीय ढंग से अंजाम दिया है.’ (संविधान सभा की बहस, खंड- 7, पृष्ठ- 231)

संविधान सभा में आंबेडकर की भूमिका कम करके आंकने वाले अरूण शौरी जैसे लोगों का जवाब देते हुए आंबेडकर के गंभीर अध्येता क्रिस्तोफ जाफ्रलो लिखते हैं कि- हमें ड्राफ्टिंग कमेटी की भूमिका का भी एक बार फिर आकलन करना चाहिए. यह कमेटी सिर्फ संविधान के प्रारम्भिक पाठों को लिखने के लिए जिम्मेदार नहीं थी, बल्कि उसको यह जिम्मा सौंपा गया था कि वह विभिन्न समितियों द्वारा भेजे गए अनुच्छेदों के आधार पर संविधान का लिखित पाठ तैयार करे, जिस बाद में संविधान सभा के सामने पेश किया जाए. सभा के समक्ष कई मसविदे पढ़े गए और हर बार ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों ने चर्चा का संचालन और नेतृत्व किया था. अधिकांश बार यह जिम्मेदारी आंबेडकर ने ही निभाई थी. ( क्रिस्तोफ जाफ्रलो, भीमराव आंबेडकर, एक जीवनी, 130) इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए प्रमुख समाजशास्त्री प्रोफेसर गेल ऑम्वेट लिखती हैं कि संविधान का प्रारूप तैयार करते समय अनके विवादित मुद्दों पर अक्सर गरमागरम बहस होती थी. इन सभी मामलों के संबंध में आंबेडकर ने चर्चा को दिशा दी, अपने विचार व्यक्त किए और मामलों पर सर्वसम्मति लाने का प्रयास किया.

डॉ. आंबेडकर उन चंद लोगों में शामिल थे, जो ड्राफ्टिंग कमेटी का सदस्य होने के साथ-साथ शेष 15 समितियों में एक से अधिक समितियों के सदस्य थे। सच तो यह है कि संविधान सभा द्वारा ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में उनका चयन उनकी राजनीतिक योग्यता और कानूनी दक्षता के चलते हुए था। जिसका परिचय संविधान सभा के पहले भाषण में 1946 में उन्होंने उस समय दिया, जब नेहरू ने संविधान सभा के उद्देश्यों की रूपरेखा प्रस्तुत की। उस समय उनके भाषण में संतुलन और कानून की जो गहरी पकड़ दिखाई दी थी, उसे कांग्रेस और संविधान सभा के बहुत सारे अन्य सदस्य गहरे स्तर पर प्रभावित हुए थे।संविधान को लिखने, विभिन्न अनुच्छेदों-प्रावधानों के संदर्भ में संविधान सभा में उठने वाले सवालों का जवाब देने, विभिन्न विपरीत और कभी-कभी उलट से दिखते प्रावधानों के बीच संतुलन कायम करने और संविधान को भारतीय समाज के लिए एक मार्गदर्शक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत करने में डॉ. आंबेडकर की सबसे प्रभावी और निर्णायक भूमिका थी। इसके कोई इंकार नहीं कर सकता।

NEW DELHI, DEC 6 (UNI):-A skylark sits on the finger of Babasaheb Dr B R Ambedkar statue during his 59th Mahaparinirvan Diwas in New Delhi on Saturday.UNI PHOTO-16U

स्वतंत्रता, समता, बंधुता, न्याय, विधि का शासन, विधि के समक्ष समानता, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और बिना धर्म, जाति, लिंग और अन्य किसी भेदभाव के बिना सभी व्यक्तियों- स्त्री-पुरूष- के लिए गरिमामय जीवन भारतीय संविधान का दर्शन एवं आदर्श है। इस आदर्श की अनुगूंज पूरे संविधान में सुनाई देती है। ये सारे शब्द डॉ. आंबेडकर के शब्द संसार के बीज शब्द है। इस शब्दों के निहितार्थ को भारतीय समाज में व्यवहार में उतारने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे और इन्हें भारतीय संविधान का भी बीज शब्द बना दिया। भारतीय संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों में विशेष तौर पर इसे लिपिबद्ध किया है। डॉ. आंबेडकर और संविधान कोई भी अध्येता सहज तरीके से समझ सकता है कि इस दर्शन और आदर्श के पीछे आंबेडकर की कितनी महती भूमिका है।जाति के विनाश किताब में 1936 में ही उन्होंने अपने आदर्श समाज समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा था कि मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर आधारित है। वे तीनों शब्दों को एक दूसरे का पूरक मानते थे। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। समनाता उन्हें किस कदर प्रिय थी, इसका सबसे बड़ा प्रमाण महिलाओं को पुरूषों के समान अधिकार दिलाने के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत हिंदू कोड़ बिल के मुद्दे पर मंत्री पद से उनका इस्तीफा।

यह निर्विवाद सच है कि वे उदार लोकतंत्र में विश्वास रखते थे। जो भारतीय संविधान की मूल अंतर्वस्तु है। संविधान सभा में 19 नवंबर 1948 को इसे रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा : “ इस संविधान में हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना इसलिए कि है क्योंकि हम किसी भी प्रकार किसी भी समूह की स्थायी तानाशाही स्थापित नहीं करना चाहते। हालांकि हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है मगर हमारी यह भी कामना है कि हम आर्थिक लोकतंत्र को भी अपना आदर्श बनाएं.. हमने सोच-समझकर नीति-निर्देशक सिद्धांतों की भाषा में एक ऐसी चीज प्रस्तुत की है, जो स्थिर या कठोर नहीं है। हमने अलग-अलग सोच रखने वाले लोगों के लिए इस बात की काफी गुंजाइश छोड़ दी है कि आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श तक पहुंचने के लिए वे किस रास्ते पर चलना चाहते हैं और वे अपने मतदाताओं को इस बात के लिए प्रेरित कर सकें कि आर्थिक लोकतंत्र तक पहुंचने के लिए सबसे अच्छा रास्ता कौन-सा है।” ( सीएडी, वाल्यूम-7, पृष्ठ-402)।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत का नया संविधान काफी हद तक 1935 के गर्वमेंट ऑफ इंडिया एक्ट और 1928 के नेहरू रिपोर्ट पर आधारित था, मगर इसको अंतिम रूप देने के पूरे दौर में आंबेडकर का प्रभाव बहुत गहरा था। क्रिस्तोफ जाफ्रलो जैसे अध्येता भारतीय संंविधान को गांधीवादी छाया से मुक्त कराने का सर्वाधिक श्रेय डॉ. आंबेडरकर को देते हैं। ( क्रिस्तोफ जाफ्रलो, भीमराव आंबेडकर, एक जीवनी) बिना गांधी और गांधीवादी छाया की मुक्ति के संविधान आधुनिक लोकतांत्रिक भारत के निर्माण की लिखित प्रस्तावना नहीं बन सकता था।

डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान की सामर्थ्य एव सीमाओं से भी बखूबी अवगत थे। इस संदर्भ में उन्होंने कहा था कि संविधान कितना ही अच्छा या बुरो हो, तो भी वह अच्छा है या बुरा है, यह आखिर में शासन चलाने वालों द्वारा संविधान की किस रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इस पर निर्भर करेगा। ( धनंजय कीर, 392)। वे इस बात से भी बखूबी परिचित थे कि संंविधान ने राजनीतिक समानता तो स्थापित कर दी है,लेकिन सामाजिक और आर्थिक समानता हासिल करना बाकी है, जो राजनीतिक समानता को बनाए रखने लिए भी अपरिहार्य है। संविधान को अंगीकार करने से पहले हुई अंतिम बहस के अवसर पर जनवरी 1950 में उन्होंने कहा : “ 26 जनवरी 1950 को ( वह दिन जब संविधान अंगीकार किया जायेगा) हम अंतर्विरोधों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीतिक स्तर पर हमारे पास समानता होगी और सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी।….हमें जल्दी ही इस अंतर्विरोध को दूर करना होगा अन्यथा जो लोग इस असमानता का दंश झेल रहे हैं वे राजानीतिक लोकतंत्र की उस संरचना को नष्ट कर देंगे, जिसे इस सभा ने इतने परिश्रम से खड़ा किया है।” ( धनंजय कीर, बाबा साहब आंबेडकर, जीवन-चरित)

डॉ. आंबेडकर ने संविधान के सदस्य और ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में भारत को एक ऐसा संविधान सौंपा था, जिसके मार्गदर्शन में आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता था और है, लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा था कि यह सबकुछ संविधान का इस्तेमाल करने वालों की मंशा पर निर्भर करता है। पिछले 72 वर्षों में निरंतर इसकी पुष्टि भी हुई है। ये 70 साल संविधान के बेहतर से बेहतर और बदत्तर से बदत्तर इस्तेमाल के साक्षी हैं। इसें हम आज के परिदृश्य में भी समझ देख सकते हैं।

सिद्धार्थ रामु इनके फेसबुक पोस्ट से साभार

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