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बाबासाहब की अंतिम यात्रा के फिल्मांकण के लिए इस शख्स से मकान और प्रिन्टिंग प्रेस बेच दिया

बाबासाहब की अंतिम यात्रा के फिल्मांकण के लिए इस शख्स से मकान और प्रिन्टिंग प्रेस बेच दिया

छह दिसम्बर 1956, महामानव भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर इनका महाप्रयाण दिवस… विषमता के खिलाफ… अन्याय के खिलाफ… आग उगलता हुआ ज्वालामुखी शान्त हो गया था… नौ करोड जनता एक क्षण में अनाथ हो गई थी… युगों से हर एक के पांवों में जकड़ी हुई गुलामी की जंजीरे… अपनी विद्वत्ता से तोडनेवाला करोड़ों लोगों का मुक्तिदाता अब विदा हो चला था… दिल्ली में उनके निधन की खबर हवा की तरह फैल गयी… अपने प्रिय नेता की अन्तेष्टि के लिये पूरा देश उमड पड़ा… खबर सुनते ही शहर-गांव-कस्बे सब के कदम मुंबई की ओर बढने लगे थे… अन्त्ययात्रा में उमडे जनसैलाब के आंसुओं में मुंबई के रास्ते भीग गये थे… इन सब में एक बात और भी घटीत हो रही थी… जो सामने आने की बजाय काल के प्रवाह में लुप्त होती चली गयी… इन अंतिम क्षणों को हमेशा के लिये कैद करनेवाले… जिन्होंने अपना रहने का मकान और अपनी प्रिन्टिंग प्रेस इस ऐतिहासिक घटना के फिल्मांकन के लिये बेच दी… उनसे लोग आज भी अनभिज्ञ है… इस जानकारी का आगे न आना एक बडी विडम्बना है…

पूर्व विधायक दलित मित्र नामदेव व्हटकर के सम्बन्ध में बहुत कम लोग जानते हैं… कोल्हापुर जिले के मसूद मालेगांव में 24 अगस्त 1921 को उनका जन्म हुआ और 1982 के 4 अक्टूबर को उनकी मृत्यु हुई… साहित्य, संपादन, नाटक, सिनेमा, आकाशवाणी, स्वतन्त्रता सैनिक, प्रगतिशील किसान ऐसे कई क्षेत्र है जिनमें नामदेव व्हटकर का उल्लेखनिय योगदान है… जन्म से जातियता की आंच लगी तो पूरा जीवन अस्पृश्यता निवारण कार्य को दे दिये… एक बार दाढी बनाने नाई के पास पहुंचे… उसने पूछा… किस जाति से हो…? उत्तर था अछूत… सुनते ही नाई के उस्तरे से गाल कट गया… चेहरे पर लगा दाग तो नहीं मिटेगा लेकिन, देश पर लगा छुआछूत का दाग मिटाकर ही रहूंगा इस प्रतिज्ञा के साथ पूरा जीवन गुजार दिये… जिन क्षेत्र में उन्होंने कार्य किया उन क्षेत्र में छुआछूत-अस्पृश्यता के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे… उनके इन कामों की दखल महाराष्ट्र सरकार ने ली और पहला दलित मित्र पुरस्कार देकर उन्हें सम्मानित किया…

छह दिसम्बर को वे मुंबई में ही थे… बाबासाहेब के प्रयाण की बात पता चली तो बडे दु:खी हुये… उन्हें लगा कि बाबासाहेब की अन्त्ययात्रा का वीडियो रिकॉर्ड करके रखना चाहिये... नाटक और फिल्मों से जुडे होने के कारण कई लोगों से उनका परिचय था… उन्होंने कई लोगों से कहां… लेकिन, कोई तैयार नहीं हो रहा था… कुछ लोगों ने तो यह भी कहां… हमें उससे क्या…? वे तो तुम्हारे नेता है… अछूतों के नेता है… हम फिल्मांकण नहीं करेंगे, ऐसा स्पष्ट उत्तर मिला… नामदेव व्हटकर की भोली आशा थी कि, कोई तो करेगा… लेकिन उनकी आस टूट गयी… आनेवाले समय के लिये इस फिल्मांकण का जो महत्व है, उन्होंने पहचान लिया था… सोचा… कोई मदद करें या न करें… स्वयं ही फिल्मांकण का निर्णय ले लिया… लेकिन, यह कोई सहज और सरल कार्य नही था… उस वक्त… वीडियो रिकार्डिंग के लिये कॅमेरा… उसके लिये रील… यह सब इतना खर्चिला था…

लगभग तीन हजार फीट निगेटिव्ह रील… कॅमेरा और कॅमेरामन… इसके लिये लगभग तेरह सौ से चौदह सौ रुपये का खर्च आ सकता था… इसके लिये पैसा कहां से आयेगा…? यह उससे भी बड़ा प्रश्न था… तब वे कुछ छोटे-छोटे कामों के लिये कुछ गिरवी रखकर मारवाडी से पैसा उठा लेते थे… लेकिन, इस बार रकम बडी थी… तो उन्होंने अपनी प्रिन्टिंग प्रेस गिरवी रख दी… बदले में डेढ़ हजार रुपये मिले… दौड़ते हुये वे कॅमेरामन शंकरराव सावेकर के पास गये… उन्होंने डेढ़ सौ रुपये प्रतिदिन किराये पर एक कॅमेरा लाया… और रात दस-ग्यारह बजे के आसपास राजगृह पहुंचे… कॅमेरा लेकर…  

बाबासाहेब का पार्थिव सुबह-सुबह पहुंचा… कुछ देर बाद एक ट्रक पर पार्थिव रखा गया… और अन्त्ययात्रा की शुरुआत हुई… नामदेव व्हटकर और कॅमेरामन को उसी ट्रक पर कॅमेरा लगाकर खड़े रहने की भर जगह मिली… पहला शॉट खोदादाद सर्किल पर लिया गया… बाबासाहेब के अन्त्यदर्शन के लिये पहुंचे विराट जनसागर का फिल्मांकण भी दिनभर चलता रहा… शाम को पार्थिव दादर चौपाटी पर पहुंचा… शाही मानवंदना दी गयी… चन्दन की चिता पर पार्थिव रखा गया… अंतिम लकडी चिता पर रखते तक शूटिंग चलती रही… बाबासाहेब का अंतिम चेहरा इसमें फिल्मांकित हुआ… चिता को अग्नि प्रदान करने के बाद भी फिल्मांकण  जारी रहा…

इस पूरी शूटिंग में दो हजार आठ सौ फीट रील खत्म हो गयी… दूसरे दिन बॉम्बे फिल्म लेबोरेटरी में फिल्म प्रोसेस के लिये दी गयी… अब फिल्म की धुलाई, पॉजिटिव्ह, रि-प्रिन्ट, एडिटिंग इन सबका खर्च आनेवाला था ढाई से तीन हजार रुपये… इसके लिये नामदेव व्हटकर फिर उसी मारवाडी के पास गये… वह मकान जिसमें वे निवास रत थे… उसी घर को गिरवी रखा और तीन हजार रुपये ले आये… आगे चलकर स्थिति यह बनी कि गिरवी रखी गयी प्रिन्टिंग प्रेस और मकान छुड़ा नहीं पाये… वह हमेशा के लिये हाथ से छूट गये… मुंबई भी छोडना पडा… 

सम्पति चली गयी… गई सो गई… लेकिन, बाबासाहेब के अंतिम स्मृति सुरक्षित कर पाये… उनके खुले चेहरे का अंतिम क्षण युगों के लिये संरक्षित हो गया… बस… इससे वे सन्तुष्ट थे…. आज हम यह जो देखते है बाबासाहेब की अन्त्ययात्रा के अंतिम क्षण यह वो ही फिल्म है जो नामदेवराव व्हटकर ने बनाई… नामदेवराव जी ने इस कार्य का न तो कभी श्रेय लिया… और न ही इसे अपनी पूंजी बनाई…

संगम काम्बले का यह मूल मराठी आलेख है इसमें जो हिस्सा फिल्मांकन और उस समय की स्मृतियों से जुड़ा है वह नामदेव व्हटकर का आत्मचरित्र कथा मेरे जन्म की (कथा माझ्या जन्माची) से लिया हुआ है... नामदेवराव व्हटकर को जानना समझना चाहते हो तो उनका आत्मचरित्र जरूर पढ़ें.

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