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कहीं आधा हिस्सा तो कहीं पूरी पहाड़ी गायब… अरावली के साथ 1990 से अब तक क्या-क्या हुआ?

कहीं आधा हिस्सा तो कहीं पूरी पहाड़ी गायब… अरावली के साथ 1990 से अब तक क्या-क्या हुआ?

खनन की वजह से अरावली लगातार सिकुड़ती जा रही है. दावा किया जा रहा है कि तमाम आदेशों, सरकारी नीतियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं की याचिकाओं, कोर्ट के फैसलों के बावजूद खनन जारी है. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के बाद से यह मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आ गया है, लेकिन इसका इतिहास काफी पुराना है.

देश में अरावली पर्वतमाला का मुद्दा एक बार फिर से गरमा गया है. दिल्ली-हरियाणा-राजस्थान और गुजरात के लिए अहम मानी जाने वाली अरावली पर्वतमाला खनन की वजह से सिमटती जा रही है. कुछ राज्यों में स्थिति ये हो गई है कि कहीं अरावली पर्वत का आधा हिस्सा तो कहीं पूरी पहाड़ी ही गायब हो गई. कहीं-कहीं तो अरावली की स्थिति कंकाल जैसी हो गई है. खनन के जरिए पहाड़ों के पत्थर निकाल लिए गए हैं. अरावली को बचाने के लिए सोशल मीडिया पर कैंपेन भी चलाया जा रहा है और इसकी महत्ता के बारे में बताया जा रहा है.

अरावली पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश, फैसलों, सरकारी नीतियों और पर्यावरण वादियों की याचिकाओं के बीच फंसे इस मामले की पूरी क्रोनोलॉजी समझते हैं, जो पर्यावरण संरक्षण की चुनौतियों को उजागर करती है. 1990 के दशक में अरावली में अवैध खनन की शिकायतें बढ़ीं. जिसके बाद पर्यावरणीय क्षरण, वायु प्रदूषण और जल संकट के मुद्दे उठने लगे.

1992 में सुप्रीम कोर्ट ने खनन पर लगाई थी रोक
तब सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार हस्तक्षेप किया और 1992 में कुछ क्षेत्रों में खनन पर रोक लगाई, लेकिन बड़े पैमाने पर प्रतिबंध सन् 2000 के दशक में आए. हरियाणा के कोट और आलमपुर में अरावली रेंज में अवैध खनन की शिकायत पर सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) ने जांच की. अक्टूबर 2002 में सीईसी ने हरियाणा और राजस्थान में अरावली में खनन पर पूर्ण रोक लगा दी.

कमेटी ने पाया कि खनन से पहाड़ियां नष्ट हो रही हैं और पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है. तब तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, कोर्ट ने राजस्थान में मौजूदा खनन पट्टों पर खनन की अनुमति दी, लेकिन नए पट्टों पर रोक लगा दी. यह फैसला खनन उद्योग के लिए राहत वाला था, लेकिन पर्यावरणवादियों ने इसे अपर्याप्त माना.

2003 में गहलोत सरकार ने बनाई थी कमेटी
इस संकट के समाधान के लिए गहलोत सरकार ने 2003 में एक कमेटी बनाई. कमेटी ने अमेरिकी भू-आकृति विशेषज्ञ रिचर्ड मर्फी के सिद्धांत को आधार बनाया. तबके सिद्धांत के मुताबिक समुद्र तल से 100 मीटर या अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ी को ही अरावली माना गया. 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली न मानते हुए खनन योग्य घोषित किया गया. यह फॉर्मूला विवादास्पद साबित हुआ, क्योंकि इससे कई इलाके खनन के लिए खुल गए.

इसके बाद दिसंबर 2003 में वसुंधरा राजे सत्ता में आईं. उनके शासन में इसी मर्फी फॉर्मूले के आधार पर खनन पट्टे दिए जाने लगे. खनन गतिविधियां बढ़ीं, लेकिन पर्यावरणीय चिंताएं भी उभरीं. मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. मामले पर सुनवाई हुई.

2005 में सुप्रीम कोर्ट ने खनन पट्टों पर लगाई रोक
बंधुआ मुक्ति मोर्चा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2005 में नए खनन पट्टों पर रोक लगा दी. कोर्ट ने पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता दी और कहा कि बिना पर्यावरणीय मूल्यांकन के खनन नहीं हो सकता. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात जिलों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. यह फैसला अवैध खनन और पर्यावरण क्षति के खिलाफ बड़ा कदम था.

2010 में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट ने खुलासा किया कि राजस्थान में अवैध खनन से अरावली की कई पहाड़ियां नष्ट हो रही हैं, खासकर अलवर और सिरोही जिलों में स्थिति ज्यादा गंभीर हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए अरावली को ठीक से परिभाषित करने और संरक्षण के निर्देश दिए.

नवंबर 2025 में केंद्र सरकार ने मर्फी फॉर्मूले को अपनाते हुए अरावली की नई परिभाषा दी, इसके तहत 100 मीटर या इससे अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ी को अरावली माना जाएगा. वहीं ऐसी दो पहाड़ियों के बीच 500 मीटर तक का क्षेत्र संरक्षित होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को इस परिभाषा को मंजूरी दे पूरे अरावली क्षेत्र में लागू कर दिया. इस विवाद की एक प्रमुख वजह पॉलीगॉन लाइन से कंटूर लाइन में बदलाव है.
2008 में जीएसआई सर्वे में पॉलीगॉन लाइन को आधार बनाया गया था, जहां 100 मीटर या अधिक ऊंची दो पहाड़ियों के बीच 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ी को पॉलीगॉन माना जाता था.
पॉलीगॉन को मुख्य पहाड़ियों का हिस्सा मानकर संरक्षण दिया जाता था, लेकिन 2025 में इसे बदलकर कंटूर लाइन कर दिया गया, जहां पहाड़ियों की समान लाइन में छोटी पहाड़ी को कंटूर कहा गया और कंटूर में खनन की अनुमति होगी.

सियासी मुद्दा बन चुका है अरावली का विवाद
अरावली विवाद राजनीतिक भी बन चुका है. हरियाणा और राजस्थान में खनन लॉबी मजबूत है, जबकि पर्यावरण ग्रुप जैसे बंधुआ मुक्ति मोर्चा और अन्य एनजीओ कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट की 2025 की परिभाषा से खनन फिर बढ़ सकता है, लेकिन पर्यावरणीय रिपोर्ट्स चेतावनी दे रही हैं. अरावली जल संरक्षण का मुख्य स्रोत है. इसके नष्ट होने से दिल्ली-एनसीआर में जल संकट गहरा सकता है.

हालिया फैसले से अरावली पर संकट का अंदेशा
यह पूरा मामला स्पष्ट करता है कि अरावली संरक्षण की लड़ाई लंबी चली है. विकास और पर्यावरण का संतुलन कैसे बनेगा, यह समय बताएगा. सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से उम्मीद है कि संरक्षण को प्राथमिकता मिलेगी.

पर्यावरण संरक्षण की मांग करने वालें का कहना है कि यह बदलाव 90 प्रतिशत अरावली को खनन के लिए खोल देगा, जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए विनाशकारी है. सुप्रीम कोर्ट की हालिया सुनवाई में पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि खनन सिर्फ सीमित क्षेत्र में होगा (0.19 प्रतिशत), लेकिन विशेषज्ञ इसे अपर्याप्त मानते हैं.

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