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सिएटल अमेरिका के इस शहर ने कानून द्वारा जातिगत भेदभाव पर लगाया प्रतिबंध

सिएटल अमेरिका के इस शहर ने कानून द्वारा जातिगत भेदभाव पर लगाया प्रतिबंध

अमेरिका के सीएटल में जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है। पारित कानून के अनुसार सीएटल के भेदभाव विरोधी कानून में जाति को भी शामिल कर लिया गया है। अमेरिका में रहने वाले साउथ एशियन्स के बीच भेदभाव से जुड़े कई मामले सामने आए हैं। जिसके बाद ये फैसला लिया गया है। 6-1 से पारित किए गए अध्यादेश के समर्थकों ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव राष्ट्रीय और धार्मिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और ऐसे क़ानून के बिना उन लोगों को सुरक्षा नहीं दी जा सकेगी जो जातिगत भेदभाव का सामना करते हैं.

सीएटल सिटी काउंसल में इससे जुड़ा एक अध्यादेश पास हो गया है। काउंसल की एकमात्र भारतीय-अमेरिकी लीडर क्षमा सावंत ने ये अध्यादेश पेश किया। उन्होंने कहा- जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई सभी तरह के अत्याचार के खिलाफ उठने वाली आवाज से जुड़ी हुई है। अमेरिका की सीएटल सिटी काउंसल में पेश हुआ ये अपनी तरह का पहला प्रस्ताव है. समर्थक इसे सामाजिक न्याय और समानता लाने की दिशा में अहम क़दम बताया जा रहा है.

अमेरिकी यूनिवर्सिटी में भी जातिगत भेदभाव बैन
उन्होंने कहा- हमें ये समझने की जरूरत है कि भले ही अमेरिका में भेदभाव उस तरह नहीं दिखता जैसा कि दक्षिण एशिया में हर जगह दिखता है, लेकिन यहां भी भेदभाव एक सच्चाई है। अमेरिका के स्कूलों और कामकाज की जगहों पर जातिगत भेदभाव होता है। यही वजह है कि कई यूनिवर्सिटीज ने जाति आधारित भेदभाव को अपनी भेदभाव-विरोधी नीतियों का हिस्सा बनाया। दिसंबर 2019 में ब्रैंडिस विश्वविद्यालय अपनी गैर-भेदभाव नीति में जाति को शामिल करने वाला पहला अमेरिकी कॉलेज बन गया और कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी सिस्टम, कोल्बी कॉलेज, ब्राउन यूनिवर्सिटी और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, डेविस सभी ने समान उपायों को अपनाया. वहीं हार्वर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) ने अपने स्नातक छात्र संघ के साथ अपने अनुबंध के हिस्से के रूप में साल 2021 में छात्र श्रमिकों के लिए जाति संरक्षण भी शामिल किया है.

अमेरिका में जातिगत भेदभाव के मामलें

2015 में नेपाल से अमेरिका गए 37 वर्षीय प्रेम पेरियार ने कैलिफॉर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया था। वो कथित निचली जाति के थे। पेरियार बताते हैं कि अन्य दक्षिण एशियाई लोगों के साथ संपर्क के दौरान रेस्तराओं से लेकर कम्यूनिटी प्रोग्राम तक में उन्हें जाति की याद दिलाई जाती थी। वो कहते हैं- कुछ लोग मुझे जानने के नाम पर मेरा सरनेम पूछते हैं, जबकि असल में वे यह जानना चाहते हैं कि मेरी जाति क्या है। यह पता चलने के बाद कि मैं दलित हूं, कुछ लोग मुझे अलग बर्तनों में खाना देते हैं।

2020 में कैलिफॉर्निया में एक दलित भारतीय इंजीनियर को सिलिकॉन वैली स्थित CISCO कंपनी में जाति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा था। इंजीनियर सिस्को के सैन होसे स्थित मुख्यालय में तैनात था। उसके कई भारतीय सहयोगी कथित ऊंची जातियों से थे, जो उसके साथ भेदभाव करते थे। इसे लेकर कंपनी पर मुकदमा किया गया था।

अमेरिका में एक संगठन इक्विटी लैब्स ने 1,500 दक्षिण एशियाई लोगों के बीच एक सर्वे में पाया कि 67 प्रतिशत दलित ने कार्यस्थल पर जातिगत भेदभाव झेला था. 40 प्रतिशत छात्रों ने भी ऐसे अनुभव से गुजरने की बात कही. कथित ऊंची जातियों के छात्रों में भेदभाव का प्रतिशत सिर्फ तीन था. 40 प्रतिशत दलितों ने यह भी कहा कि अपनी जाति के कारण उन्हें पूजा स्थलों में जाने में असहज महसूस कराया गया.

इक्वैलिटी लैब्स की संस्थापक थेनमोजी सुंदरराजन कहती हैं कि जाति को कानून के दायरे में लाना जरूरी है क्योंकि फिलहाल इस आधार पर शोषण सहने वालों के पास कोई कानूनी मदद नहीं है.
‘ट्रॉमा ऑफ कास्ट’ नामक किताब की लेखिका सुंदरराजन कहती हैं, “हम दक्षिण एशियाई लोगों को इतिहास ने इतनी सारी पीड़ाएं दी हैं. जब हम इस देश में आते हैं तो उन सारी पीड़ाओं को छिपा देते हैं और एक आदर्श अल्पसंख्यक बनने की कोशिश करते हैं. लेकिन जाति की छाया अब भी यहां है.”

साउथ एशियन्स :: समर्थन में भी और विरोध में भी
दूसरी तरफ़ लगभग बराबर की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो इसका विरोध कर रहे हैं. उनका आरोप है कि इस प्रस्ताव का मक़सद दक्षिण एशिया के लोगों ख़ास भारतीय अमेरिकियों को निशाना बनाना है.क्षमा सावंत ख़ुद ऊंची जाति से आती हैं. उन्होंने कहा, ” हमें ये समझने की ज़रूरत है कि भले ही अमेरिका में दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव उस तरह नहीं दिखता जैसा कि दक्षिण एशिया में हर जगह दिखता है, लेकिन यहां भी भेदभाव एक सचाई है.”

भारतीय मूल के कई अमेरिकियों की राय है कि जाति को नीति का हिस्सा बना देने से अमेरिका में ‘हिंदूफोबिया’ की घटनाएं बढ़ सकती हैं.भारत में जाति आधारित भेदभाव पर साल 1948 में रोक लगा दी गई थी और 1950 में संविधान में भी ये नीति शामिल की गई.

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