लोक धम्म माने संसार का द्वंद भरा स्वभाव।
संसार में बसंत भी आता है, पतझड़ भी आता है। हरियाली भी होती है, सुखा भी होता है। चढ़ाव भी आता है, उतार भी आता है। ज्वार भी आता है, भाटा भी आता है। धूप भी होती है, छाँव भी होती है। प्रकाश भी होता है, अँधेरा भी होता है। पूर्णिमा भी होती है, अमावस्या भी होती है।
इसी प्रकार मनुष्य जीवन भी द्वंदों से भरा होता है।
मनुष्य के जीवन में जीत भी होती है, हार भी होती है।निंदा भी होती है, प्रशंसा भी होती है। मान-सम्मान भी होता है, अपमान भी होता है। लाभ भी होता है, हानि भी होती है। अनचाही भी होती है, मनचाही भी होती है। प्रिय का संयोग भी होता है, अप्रिय का संयोग भी होता है। गृहस्थ धनी भी हो जाता है और निर्धन भी हो जाता है।
इन जैसे द्वंदों से हर मनुष्य का संपर्क होता रहता है।
पर जो धम्म में पक जाता है, वह उनके संपर्क होने पर अपने चित्त को रंच मात्र भी विचलित नही होने देता।
प्रबल से प्रबल तूफान में भी वह पर्वतीय चट्टान की भाँति अडिग रहता है, अचल रहता है, अटल रहता है।
तथागत बुद्ध मात्र उपदेश नही देते थे, उन उपदेशो को क्रियान्वित(implement) करना भी सिखाते थे।
इस अभ्यास द्वारा बाहरी जीवन की सुखद-दुखद परिस्थितियों में भी विचलित नही होने का बल प्राप्त करता है।
धम्म पथ पर चलता हुआ उपासक जितना जितना समता में पुष्ट होते जाता है, उतना उतना उत्तम मंगल का अधिकारी होते जाता है।
जीवन में सुख शांति का अनुभव करते हुए परम सुख शांति के सर्वोत्तम मंगल की और बढ़ते जाता है।उसे यह खूब स्पष्ट समझ में आने लगता है कि लाभ और हानि, यश और अपयश , निंदा और स्तुति,सुख और दुःख ।
लोकधम्म में चित्त विचलित नहीं होना चाहिये I चित्त शोकरहित, निर्मल तथा निर्भय रहना चाहिये I आपका चित्त हमेशा समता में स्थित रहना चाहिये I
(संदर्भ : महामंगल सुत्त- गाथा, 11 सुत्तनिपात)
भवतु सब्ब मंगलं !