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ब्राह्मणों ने बसपा को जीताया ये भ्रम या वास्तव !

ब्राह्मणों ने बसपा को जीताया ये भ्रम या वास्तव !

बहुजन समाज पार्टी 2007 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आयी थी. जब कोई भी पार्टी सत्ता में आती है तो उसे सभी जाती-धर्म, सभी वर्गों का समर्थन मिलता है. यही 2007 में हुआ. लेकिन जीत का श्रेय ब्राह्मणों को दिया गया. आप 2007 के चुनाव को देखिये. उस वक्त कांग्रेस लेफ्ट पार्टीज के साथ केंद्र की सत्ता में थे. लेफ्ट पार्टीज के 59 सांसद थे. लेकिन यूपी में कांग्रेस कमजोर थी. 2002 के चुनावों में उसके पास सिर्फ 25 सीटें थी. तो भाजपा के पास 88 सीटें थी. भाजपा उस वक्त ना केंद्र की सत्ता में थी ना ही राज्य के। .. ऐसे वक्त में मुलायम सिंह यादव बसपा के कुछ विधायकों को तोड़कर 2003 में सत्ता हासिल की थी. 2002 में बसपा के 98 विधायक थे तो सपा के 143..

 मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर गुंडागिरी, तानाशाही चरम पर थी. 2006 में ऐसा वक्त था जब कांग्रेस उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाना चाहती थी. लेकिन उस वक्त कांग्रेस का समर्थन कर रहें UPA के प्रमुख घटक दल लेफ्ट पार्टीज के प्रकाश करात ने सोनिआ गांधी को मनाकर त्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन नहीं लगने दिया. और मुलायम सिंह यादव की सरकार बच गई. लेकिन तब तक प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार के खिलाफ काफी एंटी इंकम्बेंसी तैयार हो गई थी. लोग किसी भी तरह इस सरकार से छुटकारा चाहते थे. ऐसे में 2002 के चुनाव में 98 विधायकों के साथ नम्बर 2 की पार्टी बनकर बसपा लोगों की पहली पसंद थी.इसका कारण यह था की सपा को लोगों को फिर से मौका नहीं देना था, कांग्रेस कमजोर थी और भाजपा न केंद्र में और ना ही राज्य में सत्ता में थी. ऐसे में यूपी के जो चाणाक्ष ब्राह्मण है उन्होंने इस बात को समझ लिया और बसपा को वोट देने के लिए अभियान शुरू हुआ. हालांकि इसका बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ. बसपा के पास जीत के कई सेहरे थे. भाईचारा कमिटी के माध्यम से बसपा सभी वर्गों में पहुँच गई थी. उस वक्त बाबूसिंह कुशवाह, स्वामीप्रसाद मौर्या, सुखदेव राजभर, नसीमुद्दीन सिद्दीकी,रामअचल राजभर, लालजी वर्मा समेत कई ऐसे नेता फ्रंट पर थे, जो आज बसपा में नहीं है. आज बसपा का स्टेरिंग सतीश चंद्र मिश्रा संभाले हुए है.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के चुनाव सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि 2007 में केवल 16 प्रतिशत ब्राह्मणों ने बसपा को वोट दिया था। इसके विपरीत, 86 प्रतिशत जाटव, 71 प्रतिशत वाल्मीकि, 53 प्रतिशत पासी, 58 प्रतिशत अन्य अनुसूचित जातियों और 30 प्रतिशत अन्य ओबीसी (यादवों और कुर्मी/कोरी को छोड़कर अन्य पिछड़ा वर्ग) जातियों ने बसपा को वोट दिया था। यह उनकी वजह से है, न कि ब्राह्मण समुदाय की वजह से, बसपा ने 403 सीटों वाली विधानसभा में 206 सीटें जीतीं थी।यह धारणा कि बसपा की जीत में ब्राह्मणों ने निर्णायक भूमिका निभाई, वह इस धारणा से उत्पन्न हुई क्योंकि साल 2007 में बसपा ने 86 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे थे और 41 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी यद्द्पि उनकी जीत ब्राह्मणों की तुलना में सबाल्टर्न सामाजिक या वंचित तबकों के वोटों से तय हुई थी। इसका अर्थ बसपा ने ब्राह्मणों को जीताया न की ब्राह्मणों ने बसपा को. 2007 में बसपा को 30 फीसदी वोट मिलें थे तो 2002 में 23 फीसदी. सपा को 2002 और 2007 दोनों समय २५ फीसदी वोट मिलें. 2012 बसपा 25 तो सपा 29 फीसदी वोटों के साथ जीती.

2012 में, बसपा सत्ता से बाहर हो गई थी, भले ही पार्टी को 19 प्रतिशत ब्राह्मण वोट मिले थे, जो 2007 के मिले वोट से 3 प्रतिशत अधिक थे। बल्कि हक़ीक़त यह है कि 2012 में दलित मतदाताओं के वोट न देने के कारण बसपा हार गई थी – उदाहरण के लिए, केवल 62 प्रतिशत जाटव और 42 प्रतिशत वाल्मीकियों ने पार्टी को वोट दिया था।

2017 में भाजपा ने मोदी के नाम और हिंदुत्व की राह के कारन 39 फीसदी वोट पाए तो बसपा और सपा दोनों को 22 फीसदी वोट मिलें. लेकिन 2017 से अबतक भाजपा ने जो बसपा या सपा का वोट बैंक था, पिछड़ी जाती का उसे अपने पाले में कर लिए. पाल-गडरिया-निषाद-कुर्मी,राजभर-कुशवाह-मौर्य-सैनी-प्रजापटी वोटर्स अब बीजेपी के पास है. इस सन्दर्भ में प्रो. दिलीप मंडल का विश्लेषण समझना चाहिए. 2019  के लोकसभा में भाजपा को लगभग 50 फीसदी तो वही बसपा को 20 और सपा को 18 फीसदी ही वोट मिलें. राष्ट्रवाद की लहर, हिंदुत्व, गठबंधन का मुस्लिम-दलित-यादव कॉम्बिनेशन के नारे के कारण पिछड़ी जातीया बीजेपी के पास चली गई.

सीएसडीएस ने 2017 के विधानसभा चुनावों में जाति आधार पर वोटिंग पैटर्न को प्रकाशित नहीं किया है। हालांकि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मतदाताओं का वोट करने का पैटर्न  अलग-अलग है, इसलिए बसपा को चिंता इस बात पर करने की जरूरत है कि 2014 के राष्ट्रीय चुनावों में पार्टी के मुख्य आधार जाटवों में से केवल 68 प्रतिशत और अन्य अनुसूचित जातियों में से केवल 29 प्रतिशत ने वोट दिया था। 2019 में, 75 प्रतिशत जाटवों ने महागठबंधन, या सपा-बसपा गठबंधन को मतदान किया था, लेकिन अन्य अनुसूचित जातियों में से केवल 42 प्रतिशत ने ऐसा किया था। जाटव वोटों में वृद्धि काफी हद तक इन उम्मीदों के कारण हुई कि अगर त्रिशंकु लोकसभा बनती है तो मायावती प्रधानमंत्री बन सकती हैं। उनकी इस उम्मीद और उत्साह को अन्य दलित उपसमूहों ने साझा नहीं किया।

ब्राह्मणों के बीच बसपा का समर्थन लगातार गिर रहा है – उनमें से केवल 5 प्रतिशत ने 2014 में बसपा को वोट दिया था, और उनमें से ही करीब 6 प्रतिशत ने 2019 में एसपी-बीएसपी गठबंधन को मतदान किया था। जबकि इसके विपरीत भाजपा ब्रहामण वोट का प्रमुख भंडार रही बनी रही। भाजपा को 2007 में 44 प्रतिशत ब्राह्मण वोट मिले, 2014 के लोकसभा चुनाव में 72 प्रतिशत और 2019 में 82 प्रतिशत वोट मिले थे।

इसकी संभावना नहीं है कि बसपा का हाई-वोल्टेज ब्राह्मण सम्मेलन पार्टी को इस प्रभावशाली जाति के वोटों का बड़ा हिस्सा हथियाने में मदद करेगा।

दूसरे शब्दों में, ब्राह्मणों की बड़ी संख्या के भाजपा को छोड़ने की संभावना नहीं है। 2007 में भी, जब बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन किया था तो तब भी 44 प्रतिशत ब्राह्मणों ने भाजपा को वोट दिया था, जबकि उससे सत्ता पर कब्जा करने की उम्मीद भी नहीं थी।

चुनावी राजनीति में जाति की अहम भूमिका होती है। लेकिन यह मतदाता के निर्णय लेने का कोई एकमात्र आधार नहीं है। 2012 में, सपा को यादव वोटों का सिर्फ 66 प्रतिशत हिस्सा मिला था, जो पार्टी का मुख्य आधार था, जो 2007 में मिले 72 प्रतिशत से काफी से कम था। बावजूद इसके, उसने 2012 में 224 सीटें इसलिए नहीं जीतीं थी, कि यादवों के बीच उन्होने बेहतर प्रदर्शन किया था, बल्कि इसलिए, जैसा कि हीथ और कुमार बताते हैं, पार्टी “विभिन्न अन्य समुदायों के मतदाताओं को आकर्षित करने” में कामयाब रही थी।

2012 में सपा की जीत से इस बात का पता चलता है कि राजनीतिक दलों के लिए विभिन्न जाति/वर्ग की लामबंदी का विकल्प चुनने के लिए पर्याप्त जगह है। जातीय गौरव और आघात  के मुद्दे के इर्द-गिर्द ब्राह्मण वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा करने से बेहतर, सपा आज भी अन्य जातियों को लामबंद करने के मामले में एक चुंबक बनने की बेहतर स्थिति में है। उदाहरण के लिए, सपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चल रहे किसान आंदोलन का लाभ उठाने की उम्मीद कर सकती है, कम से कम राष्ट्रीय लोक दल के साथ अपने संभावित गठबंधन के कारण, जो किसान/जाट हितों का प्रतिनिधित्व करता है।

दरअसल, विपक्ष के लिए ब्राह्मणों को लुभाना वैसा ही है जितना कि आदित्यनाथ के जाल में फंसना। पहचान की राजनीति पर जितना अधिक फोकस होगा, उतना ही आदित्यनाथ के कुशासन के रिकॉर्ड के जनता की जांच से बचने की संभावना अधिक होगी। इस तरह का फोकस आदित्यनाथ और भाजपा के 2022 के विधानसभा चुनाव को हिंदु और मुसलमान के बीच की लड़ाई में बदलने में मदद करेगा।

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