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पा. रंजीत की फिल्म सरपट्टा देखना क्यों जरुरी है ?

पा. रंजीत की फिल्म सरपट्टा देखना क्यों जरुरी है ?

मशहूर अम्बेडकराईट डायरेक्टर पा रंजीत की फिल्म सरपट्टा प्राइम पर रिलीज़ हुई है, क्यों ये फिल्म मास्टर पीस है और क्यों हमें ये फिल्म देखनी चाहिए ? पा रंजीत ने सरपट्टा नाम से जो बॉक्सिंग आधारित फिल्म बनाई है उसे लम्बे समय तक याद किया जाएगा, खास बात ये है की शुरू से ये फिल्म बॉक्सिंग की थीम पर आगे बढती है पर कई समानांतर कहानिया साथ साथ चलती है, बड़ी खूबसूरत तरिके से पा रंजीत ने राजनीती और समाजव्यवस्था को भी बेहतरीन तरीके से दर्शकों के सामने पेश किया है .

इस फिल्म को केवल बॉक्सिंग आधारित फिल्म समझना बिलकुल गलत है, बल्कि ये उससे कही आगे है क्यों की असल में सरपट्टा में जो बॉक्सिंग रिंग दिखती है उसके हर बाउट्स और फ़ाउल तत्कालीन समाज और राजनीति को उजागर करती है, साथ ये फिल्म आत्मसंघर्ष और आत्मसन्मान की भी कहानी है, पा रंजीत का नायक याने उसका बॉक्सर नेशनल या ओलम्पिक में चैम्पियन नहीं बनाना चाहता लेकिन जब वो पंच मारता है तो उसका एक ही गोल होता है आत्मसन्मान सेल्फ रिस्पेक्ट !

सरपट्टा पराम्बई का बैगराउंड नॉर्थ मद्रास है जिसे आजकल आप चेन्नई के नाम से जानते है, ये फिल्म तमिल में है सरपट्टा का ट्रेलर आते ही इसे खूब सराहा गया था, और अब Amazon प्राइम पर रिलीज़ होने के बाद इसे बहोत तारीफ़ भी मिल रही है, फिल्म की कहानी यू तो एक बॉक्सर पर आधारित है जो अपने समाज की आत्मसन्मान की लड़ाई लड़ता है. फिल्म का समय १९७५ और उसके बाद के सालो का है, और ये वही समय है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पुरे देश में आपातकाल घोषित किया था, फिल्म में आपको एमर्जेन्सी के काल में पुलिसिया कार्रवाई की झलक भी मिलेगी और साथ में ये भी पता चलेगा के कैसे उस समय तमिलनाडु की करूणानिधि सरकार ने सीधे इंदिरा गांधी को ललकारा था.


इस कहानी को आज के काल से या आज के सन्दर्भ में भी जोड़ सकते है नीट में आरक्षण को लेकर आज भी तमिलनाडु की स्टालिन सरकार सीधे केंद्र की मोदी सरकार से लोहा ले रही है, कुछ ऐसाही नजारा उस समय इमरजेंसी के समय में भी था, जब करूणानिधि सरकार इंदिरा गांधी की सरकार के साथ भिड़ी हुई थी, फिल्म राजनैतिक उठापठक को छूती जरूर है लेकिन अपनी असल कहानी से भटकती नहीं ये बात पा रंजीत के डायरेक्शन की खूबी को बया करती है, इस फिल्म में मुख्य किरदार के साथ साथ कई समानांतर कहानिया भी चलती है, लेकिन पूरा फोकस बॉक्सिंग पर आखरी तक टिका रहता है, सरपट्टा बॉक्सिंग खेल पर आधारित एक जबरदस्त ड्रामा फिल्म है, मद्रास में एक समुदाय है जिसे अंग्रेजो ने अपने मनोरंजन के लिए बॉक्सिंग सिखाई थी, इस कहानी में समुदाय के लिए किसी जातीवाचक शब्द का इस्तमाल नहीं किया गया बल्कि कुल याने क्लेन इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है लेकिन इस फिल्म का तानाबाना देखकर स्पष्ट हो जाता है की ये फिल्म १०० फीसदी बहुजन समाज की पृष्ठ्भूमि से ही आती है, बॉक्सिंग को लेकर कई कुलो में कॉम्पिटिशन चलता है, अलग अलग वंशो के बिच में वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती है, जैसे भारत में अलग अलग वर्गों में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है.

सरपट्टा और ईदीयप्पा नाम के दो वंशो में बॉक्सिंग को लेकर टक्कर रहती है, मुख्य किरदार का नाम कबालिन है जिसे अभिनेता आर्या ने निभाया है, और आर्या ने बहोत ही शानदार काम किया है और जब वो रिंग में उतरते है तो आप की नज़रे उनपर ठहर जाती है, कबालिन के पिता भी बॉक्सर थे लेकिन दूसरे ग्रुप ने उनकी हत्या कर दी थी और इसी हमले में कबालिन और उनकी माँ बच जाते है, और इसी बॉक्सिंग के वर्चस्व लड़ाई के वजह से कबालिन की माँ उनको बॉक्सिंग से दूर रखना चाहती है, माँ के रोल में अभिनेत्री अनुपमा का किरदार बहोत ही प्रभावशाली है, इस फिल्म को आप एक माँ के संघर्ष के तौर पर भी देख सकते है, जो अपनी औलाद को बचाने के लिए किसी भी हद तक संघर्ष कर सकती है, पहले तो माँ अपने बेटे को बॉक्सिंग से रोकती है लेकिन बाद में वही माँ अपने बेटे के लिए प्रेरणा भी बन जाती है, माँ के अलावा पत्नी के नजरिये से भी एक समानांतर कहानी चलती रहती है, पत्नी का भी संघर्ष निरंतर चलता रहता है, दशेरा विजयन ने मरिअम्मा का किरदार निभाया है जो कबालिन की पत्नी है, लड़की के जन्म के बाद जब कबालिन पूरी तरह बॉक्सिंग के जूनून में दुब जाता है तब वो एक साथी और पत्नी के रूप में कबालिन पर चिढ़ती है,और अपने हिस्से के प्यार के लिए सीधे भीड़ जाती है, ये भी इस फिल्म की खासियत है की हिंदी फिल्मों में जिस तरह से माँ या पत्नी को अबला के रूप में दिखाया जाता है इस फिल्म में महिला किरदारों को भी बहोत स्ट्रांग रूप में दिखाया गया है, इसके अलावा ये फिल्म जितनी फिल्म के नायक कबीलान की जद्दोजहद को दिखाती है उतनीही उनके बॉक्सिंग के कोच रंगन के भी संघर्ष को बया करती है .

अभिनेता पशुपति ने कोच के रूप में बहोत ही दमदार भूमिका निभाई है, कोच पेरियार वादी आंदोलन का नेता और समर्थक भी है और दूसरे समुदाय से बदला लेने के लिए अपने समुदाय से भी एक सशक्त बॉक्सर बनाने की उसकी चाहत है, कोच का अपना बेटा भी बॉक्सर है पर कोच रंगन इस के लिए कबालिन को ही चुनते है,वो अपने बेटे को नहीं चुनते, हलाकि उनका बेटा बाद में कबालिन पर हमला भी कर देता है उसे रोकने की कोशिश भी करता है लेकिन बाद में उसकी सोच में बदलाव आ जाता है उसको अपनी गलती का अहसास होता है और जब बाद में कहानी में विरोधी कबालिन पर जानलेवा हमला करते है, तो वो उसे बचाता है, ये फिल्म कोच रंगन के किरदार पर भी आधारित है, भले ही मुख्य किरदार आर्या ने निभाया हो लेकिन ये कहानी कोच रंगन से भी जुडी है की कैसे वो तत्कालीन कांग्रेस की सत्ता का विरोध करता है और उसे ललकारता है, और बॉक्सिंग को एक आइडियोलोजी के रूप में पेश किया गया है तो वो उसे बचाता है, वो पेरियार विचारधारा के प्रचारक भी है, तो ये फिल्म कोच के संघर्ष की भी गाथा है, अपने विरोधी से हारने के बाद वो बॉक्सिंग ही छोड़ चुके होते है, इसलिए उनके अंदर भी आत्मसन्मान के लिए लगातार संघर्ष चलता रहता है, फिल्म में डीएमके में फुट पड़ने और फिर एआयडीएमके के बनने की भी झलक दिखाई देती है

ये कहानी से जुडी कुछ बाते थी हम आपको पूरी कहानी नहीं बता सकते, हम चाहते है की आप खुद ये फिल्म देखे और आप खुद इस संघर्ष की प्रेरणा को समझे। एक सफल सिनेमा के लिहाज से इस फिल्म में एक्शन, रोमांस, थ्रिलर, एंटरटेंटमेंट सब कुछ है, पूरा पैकेज है लेकिन फिल्म को पूरा जानने के लिए आपको फिल्म देखनी ही होगी, पा रंजीत एक अम्बेडकरवादी फिल्म मेकर होने के साथ साथ एक कमर्शियली हिट यशस्वी फिल्म मेकर भी है, वो इसलिए भी ग्रेट है क्यों की वे सिर्फ बहुजन किरदारों और कहानियो पर ही नहीं टिके रहते है बल्कि अपनी कहानी को इतनी खूबसूरती से पेश करते है की बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड तोड़ देते है और सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर कामियाब होने के लिए अपनी विचारधारा से जरा भी कॉम्प्रमाइज नहीं करते. पा रंजीत की सोच बहुजन विचारधारा और फिल्म कहानी का एक जबरदस्त कॉम्बिनेशन बनती है और सफल भी हो जाती है, वो फिल्म में अम्बेडकरवादी प्रतीकों को बहोत ही ख़ास तरीके से सजाते है, फिल्म के दृश्यों में आपको बाबासाहब को लेकर तथागत बुद्ध की प्रतिमाये दिखाई देगी. बस्ती के सेट पर आपको बुद्धा बार बार दिखाई देते है, एक दॄश्य में एक ब्राह्मण पंडित जैसे एक किरदार को जमीन पर बिठाये हुए दिखाया गया है, जो अपने आप में क्रांतिकारी विचार है, क्यों की हिंदी फिल्मो इसके विपरीत दिखाया जाता है, और पंडित पुजारियों को उच्च स्थान दिया जाता है

वो अपने हीरो को पेरियारवादी बताते है. इन सब बातो को परदे पर उतारने के लिए बहोत बड़ा जिगर लगता है, जो जिगर उत्तर भारत या मुंबई के किसी भी फिल्म मेकर या डायरेक्टर ने अभी तक नहीं दिखाया है. पा रंजीत ने बहुजन प्रतीकों को बहोत ही प्रभावशाली ढंग से इस्तमाल किया है, कबालिन के नीले रंग के ग्लब्स बाबासाहब के नीले झंडे के परिचारक हैं, पा रंजीत के फिल्मो की खूबसूरती ये है के वो सिर्फ अम्बेडकरी कल्चर को ही नहीं बांधे रखते बल्कि उसके किरदार, डायलॉग, दॄश्य, कहानी और मेकिंग को इतने बड़े स्टार पर ले जाते है की वो बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त हिट हो जाती है, उनकी फिल्म काला, मद्रास, कबाली ने कमाई के सरे रिकॉर्ड तोड़े थे, पा रंजीत ने अपनी फिल्म के जरिये संघर्ष करते रहने और कभी हार न मानने का सन्देश तो दिया ही है, लेकिन उन्होंने तथागत बुध्द के अत्त दिप भव का सन्देश भी दिया है, फिल्म का एक गाना कहता है के तुम खुद ही तुम्हारी रौशनी हो खुद की रौशनी खुद ही बनो, पा रंजीत के किरदार कभी भी कही मंदिर में मन्नत माँगने जाते नहीं दिखते, ना ही किसी भगवान की परिक्रमा करते नजर आते है है जो आम तोर पर साउथ और बॉलीवुड की फिल्मो में अक्सर नजर आ जाते है.

अपनी मेहनत से सारी चुनौतियों को पार कर लेता है बाबासाहब ने संघर्ष करनेका और तार्किक सोच रखने का जो विचार दिया है वो आपको सरिपट्टा इस फिल्म में जरूर दिखाई देगा, हिंदी फिल्मो के मुकाबले प् रंजीत के दलित और बहुजन किरदार ताकतवर और नेतृत्व करने वाले होते है, बल्कि हिंदी फिल्मो में सवर्ण ब्राह्मण ही नायक के रूप में परोसा जाता रहा है, पा रंजीत के फिल्मो में अम्बेडकरवादी हीरो दमदार और ताकतवाला होता है, हल ही में मारी सेल्वराज की फिल्म कर्णन में भी हीरो दलित है और सशक्त और ताकतवर है, तमिल तेलगु की ये सब फिल्मे परदे पर नयी रंगो के साथ आ रही है, पेरियार, बुद्ध, फुले, अम्बेडकरवादी विचारधाराओ को अपना आदर्श मानकर दिलो और बॉक्स ऑफिस पर भी राज कर रही है, आने वाले समय में जब जब मौका मिलेगा तब तब प्रस्थापित सवर्ण ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई अंधविश्वास से भरी, विज्ञानं और तर्क से दूर दूर तक संबंद न रखनेवाली फिल्मो को हम नकारकर, विज्ञानवादी तर्कशील फिल्मो का दौर शुरू कर सकते है .

प्रीतम बुलकुंडे Image ; @YoAbhish

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