आखिर मायावती के रुख में यह बदलाव क्यों आया? क्या यह सियासी रणनीति का हिस्सा है या सचमुच मुसलमानों के लिए उनके दिल में जगह बनी? मायावती हमेशा इंसाफ, एकता और समानता की बात करती रही हैं. इसलिए मैं समझता हूं कि मुसलमानों को मायावती पर भरोसा करना चाहिए. हिंदुस्तान की दो बड़ी अक़लियतें मुसलमान और दलित अगर एक मंच पर आते हैं, तो यह देश के लिए एक नई उम्मीद बन सकता है.
अलीगढ़. उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर मायावती की सक्रियता चर्चा में है. बसपा सुप्रीमो मायावती हाल के दिनों में लगातार मुसलमानों के मुद्दों पर बयान देती नज़र आ रही हैं और उनके साथ बैठकें कर रही हैं. अटकलें तेज हैं कि वो यूपी चुनाव २०२७ से पहले मुस्लिम समाज को अपने करीब लाने की कोशिश कर रही हैं. पर बड़ा सवाल यह है कि क्या मुसलमान अब मायावती पर भरोसा करेगा? कभी २०२२ के विधानसभा और २०२४ के लोकसभा चुनाव में हार का ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ने वाली मायावती अब उसी समुदाय के करीब आने की कोशिश में दिखाई दे रही हैं. आखिर मायावती के रुख में यह बदलाव क्यों आया? क्या यह सियासी रणनीति का हिस्सा है या सचमुच मुसलमानों के लिए उनके दिल में जगह बनी?
इस मसले पर सैयद अतीक उर रहमान कहते हैं कि इन दिनों मायावती के बारे में कहा जा रहा है कि उनका हृदय परिवर्तन हो रहा है, लेकिन मैं इसे हृदय परिवर्तन नहीं कहूंगा. मायावती बहुत काबिल, शिक्षित और सीनियर लीडर हैं. चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. राज्यसभा सांसद भी रही हैं. मैं खुद बाय प्रोफेशन एक शिक्षक हूं, इसलिए यह कहना चाहूंगा कि कम लोगों को यह मालूम है कि मायावती ने ग्रेजुएशन के बाद बी.एड किया और शिक्षिका के रूप में कार्य किया. उन्होंने सिविल सर्विस की तैयारी भी की थी. यानी वो प्रशासनिक अधिकारी बनने की दिशा में भी आगे बढ़ रही थीं. जहां तक उनके राजनीतिक रुख की बात है, मायावती ने हमेशा बेबाकी से, साफ-सुथरे तरीके से अपनी बात रखी है. बीजेपी के समर्थन से जब वो मुख्यमंत्री बनीं, तो भी अपनी शर्तों पर रहीं. जब बीजेपी ने समर्थन वापस लिया तब भी उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया.
मायावती को लेकर लोकल 18 न्यूज़ की टीम ने अलीगढ़ के मुसलमानों से खास बातचीत की, उनके सौजन्य से बातचीत के कुछ अंश आवाज़ इंडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं.
सैयद अतीक का कहना था कि अब अगर आज वो मुसलमानों की आवाज उठा रही हैं, उनके पक्ष में बोल रही हैं, तो इसमें कोई परिवर्तन नहीं, बल्कि न्याय और बराबरी की उनकी वही सोच झलकती है जो पहले भी थी. मुसलमान अगर समाजवादी पार्टी की तरफ देख रहे हैं, तो यह भी देखना चाहिए कि उन्हें वहां से कितनी वफा मिली. मायावती के शासन में कानून-व्यवस्था बहुत मजबूत रहती थी. वो हमेशा इंसाफ, एकता और समानता की बात करती रही हैं. इसलिए मैं समझता हूं कि मुसलमानों को मायावती पर भरोसा करना चाहिए. हिंदुस्तान की दो बड़ी अक़लियतें मुसलमान और दलित अगर एक मंच पर आते हैं, तो यह देश के लिए एक नई उम्मीद बन सकता है. मायावती दलितों की बड़ी नेता हैं और मुसलमानों ने भी अतीत में उन्हें वोट दिया है. कभी-कभी गलतफहमियां या बयानबाज़ी से दूरी बन जाती है, लेकिन मायावती आज भी एक उम्मीद हैं. मुसलमानों को चाहिए कि 2027 के चुनाव में खुलकर उनका साथ दें और उन पर भरोसा जताएं.
वहीं काशिफ खान का कहना है कि मायावती जो कर रही हैं वो महज़ मुसलमानों को लुभाने की कोशिश है. जब मुसलमानों ने उन्हें वोट देकर मुख्यमंत्री बनाया था, तब उन्होंने मुसलमानों के लिए क्या किया? और जब वो सत्ता से बाहर हुईं, तो हर बार हार की जिम्मेदारी मुसलमानों पर डाल दी. अभी हाल ही में आपने देखा होगा कि वो बीजेपी की तारीफें कर रही थीं. तो इनका खुद का स्टैंड ही क्लियर नहीं है. ये तय ही नहीं कर पा रही हैं कि किधर जाना चाहती हैं. मुसलमानों को पार्टी में जगह नहीं देना चाहतीं, मंत्री नहीं बनाना चाहतीं, टिकट नहीं देना चाहतीं, लेकिन चाहती हैं कि मुसलमान उन्हें वोट दे दें. आखिर मुसलमान क्यों दें वोट? उन्होंने ऐसा क्या किया मुसलमानों के लिए? आज तक कोई ठोस काम बताइए, जो मुसलमानों के हक में किया हो.
काशिफ खान आगे कहते हैं कि मुसलमान अब जाग चुका है. अब वो सोच-समझकर फैसला कर रहा है कि किसके साथ जाए. दरअसल, तमाम रीजनल पार्टियां मुसलमानों के वोट तो ले लेती हैं, लेकिन उनके फेवर में खुलकर कोई बात नहीं करतीं. मायावती के साथ तो इस वक्त मुसलमानों का न के बराबर सपोर्ट है. मैं कह सकता हूं कि मुश्किल से 1% मुसलमान ही उनके साथ होंगे. जब चुनाव आते हैं, तब सबको मुसलमानों की याद आती है, क्योंकि यूपी में मुसलमानों की आबादी 18 से 20 प्रतिशत है. लेकिन जैसे ही ये लोग जीत जाते हैं, मुसलमानों के लिए कोई काम नहीं करते. जबकि सच्चाई ये है कि मुसलमान चाहे तो किसी की भी सरकार बना सकता है, इतना बड़ा वोट बैंक है. मायावती ने तो पहले भी मुसलमानों के प्रति कई बार बदज़ुबानी की, बेअदबी की बातें कीं. इसलिए अब मुसलमान उनके साथ बिल्कुल नहीं है.
इक़बाल अहमद बताते हैं कि मायावती हमेशा से मुसलमानों को अपने करीब लाने की कोशिश करती रही हैं, लेकिन जब चुनाव जीत जाती हैं, तो बीजेपी के साथ हाथ मिला लेती हैं. यही वजह है कि अब मुसलमान उन्हें अच्छी तरह पहचान चुका है. मुसलमान अब मायावती के पास नहीं जाएगा. चाहे वो कितनी भी लालच दे दें, कितने भी टिकट बांट दें. मुसलमान समझ चुका है कि ये सब दिखावा है. मायावती मुसलमानों को टिकट इसलिए देती थीं ताकि मुसलमानों को लगे कि वो उनके साथ हैं, लेकिन चुनाव के बाद धोखा ही मिला. मेरे ख्याल से मुसलमान अब मायावती के साथ नहीं जाएगा. अब मुसलमान सोच-समझकर वोट देता है. आज अखिलेश यादव हैं, कांग्रेस है. मुसलमानों का रुख अब उधर ही है. मायावती चाहे जितनी कोशिश कर लें मुसलमान अब उन्हें वोट नहीं देगा.


 
											
 
											 
											