हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में जेंडर पहचान के कारण दो स्कूलों से नौकरी से निकाली गई ट्रांसजेंडर शिक्षिका जेन कौशिक को मुआवज़ा देने का आदेश दिया है। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों की ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, २०१९ को लागू करने में “उदासीन रवैये” के लिए आलोचना की है और एक सलाहकार समिति भी गठित की है। यह समिति ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए समान अवसर की नीतियां बनाने में मदद करेगी।
जेन कौशिक नामक एक ट्रांसजेंडर शिक्षिका को गुजरात और उत्तर प्रदेश के दो निजी स्कूलों से उनकी जेंडर पहचान के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था। उन्हें उत्तर प्रदेश में नियुक्ति पत्र मिला था, लेकिन वे केवल छह दिन ही पढ़ा सकीं, जबकि गुजरात में उन्हें शामिल ही नहीं होने दिया गया।
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने १७ अक्टूबर, २०२५ को एक ऐतिहासिक फैसले में, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, २०१९ को लागू करने में “घोर उदासीन रवैये” और “सुस्ती” के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की कड़ी आलोचना की है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने एक ट्रांसजेंडर शिक्षिका द्वारा दायर रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए यह माना कि एक कार्यात्मक शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने में विफलता “चूक द्वारा भेदभाव” के समान है।
अदालत ने याचिकाकर्ता, सुश्री जेन कौशिक, को उनके साथ हुए भेदभाव और राज्य द्वारा उनके अधिकारों की रक्षा करने में विफलता के लिए मुआवज़ा देने
का आदेश दिया। इसके साथ ही, न्यायालय ने २०१९ के अधिनियम को लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को कई अनिवार्य और समयबद्ध
निर्देश जारी किए और ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक व्यापक समान अवसर नीति तैयार करने हेतु एक उच्च-स्तरीय सलाहकार समिति का गठन किया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, सुश्री जेन कौशिक, एक ट्रांसजेंडर महिला हैं, जिन्हें एक साल के भीतर दो अलग-अलग निजी स्कूलों से नौकरी से निकाले जाने
के बाद उन्होंने संविधान के अनुच्छेद ३२ के तहत सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। उनकी पहली नौकरी नवंबर २०२२ में “पहले स्कूल” (प्रतिवादी संख्या 5) में एक प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक के रूप में लगी थी। उन्होंने आरोप लगाया किअपने आठ दिनों के कार्यकाल के दौरान, उन्हें “नाम-चिढ़ाने, उत्पीड़न और शारीरिक शर्मिंदगी” का सामना करना पड़ा। जब उन्होंने एक छात्र के सामने अपनी ट्रांसजेंडर पहचान उजागर की, तो उन्होंने दावा किया कि उन्हें वेतन रोकने की धमकी देकर इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया। हालांकि, स्कूल ने उनकी बर्खास्तगी का कारण “खराब प्रदर्शन” बताया। सुश्री कौशिक को नौकरी का दूसरा अवसर गुजरात के “दूसरे स्कूल” (प्रतिवादी संख्या 4) में मिला, जिसने उन्हें जुलाई जुलाई २०२३ में एक अंग्रेजी शिक्षक के रूप में पद की पेशकश की। हालांकि, याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि जब वह नौकरी ज्वाइन करने के लिए यात्रा कर रही थीं, तब स्कूल अधिकारियों को उनके ट्रांसजेंडर होने का पता चला और उन्होंने उन्हें नौकरी देने तथा स्कूल परिसर में प्रवेश करने से भी मना कर दिया। स्कूल ने तर्क दिया कि प्रस्ताव पत्र रोजगार की गारंटी नहीं देता और यह निर्णय एक “प्रशासनिक कार्रवाई” थी।
सुप्रीम कोर्ट में आने से पहले, सुश्री कौशिक ने राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW), राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर व्यक्ति परिषद (NCTP), और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) सहित विभिन्न निकायों से न्याय की गुहार लगाई, लेकिन उन्हें कोई प्रभावी राहत नहीं मिली। राष्ट्रीय महिला आयोग की जांच समिति ने यह निष्कर्ष निकालते हुए जांच जांच बंद कर दी थी कि पहले स्कूल के खिलाफ “भेदभाव का कोई मामला नहीं बनता है।”
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए व्यापक समान अवसर नीति का मसौदा तैयार करेगी कमेटी
फैसले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा २०१९ एक्ट की कमियों पर केंद्रित है। बेंच ने कहा कि एक्ट में शिकायत निवारण तंत्र की कमी ने ट्रांसजेंडर को असहाय बना दिया है। कोर्ट ने नोट किया कि केवल ११ राज्यों में ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन सेल बने हैं और अधिकांश राज्यों ने नियम नहीं बनाए। रोजगार में भेदभाव के मामलों का जिक्र करते हुए बेंच ने कहा, “ट्रांसजेंडर को कार्यस्थलों पर पूर्वाग्रहपूर्ण सामाजिक मानदंडों के कारण बाधाओं का सामना करना पड़ता है।” कोर्ट ने अप्रत्यक्ष क्षैतिज अनुप्रयोग के माध्यम से निजी संस्थाओं पर मौलिक अधिकारों को लागू करने का समर्थन किया।
ट्रांसजेंडर समुदाय की दैनिक चुनौतियों पर कोर्ट ने गहरी चिंता जताई। निगरानी, हाइपर-विजिलेंस, रोजगार में प्रवेश बाधाएं, पहचान दस्तावेजों में बदलाव की कठिनाई, शैक्षणिक बहिष्कार और सामाजिक-राजनीतिक बहिष्कार का जिक्र किया। विभिन्न हाईकोर्ट फैसलों का हवाला देते हुए बेंच ने कहा कि ट्रांसजेंडर को पुलिस उत्पीड़न, चिकित्सा जांचों में अपमान और पेंशन लाभों से वंचित होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कोर्ट ने सुझाव दिए कि सार्वजनिक स्थानों पर जेंडर-न्यूट्रल वॉशरूम, जागरूकता अभियान और चिकित्सा पाठ्यक्रम में सुधार आवश्यक हैं।
फैसले में कोर्ट ने अनुच्छेद १४२ के तहत कई निर्देश जारी किए। सभी राज्यों में अपीलीय प्राधिकारी, वेलफेयर बोर्ड और प्रोटेक्शन सेल गठित करने का आदेश दिया। हर संस्थान में शिकायत अधिकारी नियुक्ति अनिवार्य की। राज्य मानवाधिकार आयोग को अपील फोरम बनाया। राष्ट्रव्यापी टोल-फ्री हेल्पलाइन स्थापित करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने कहा, “ये निर्देश अनिवार्य हैं और तीन महीने में पालन सुनिश्चित किया जाए।”
ट्रांसजेंडर मुद्दों पर गहन अध्ययन के लिए एक सलाहकार समिति गठित की, जिसमें जस्टिस आशा मेनन (रिटायर्ड) को चेयरपर्सन बनाया। समिति में एक्टिविस्ट अक्काई पद्माशाली, ग्रेस बानू, व्यजयंती वसंत मोगली जैसे सदस्य हैं। एक्स-ऑफिशियो सदस्यों में सामाजिक न्याय मंत्रालय के सचिव शामिल। समिति को छह महीने में समान अवसर नीति का ड्राफ्ट तैयार करने का कार्य सौंपा। कोर्ट ने कहा, “यह समिति ट्रांसजेंडर अधिकारों को मजबूत करने के लिए नीतिगत सिफारिशें देगी।” समिति की सिफारिशें मिलने के तीन महीने के भीतर केंद्र सरकार से अपनी अंतिम नीति बनाने की उम्मीद है। अदालत ने शुरुआती कार्यों के लिए समिति को 10 लाख रुपये स्वीकृत किए हैं।
यह फैसला न केवल जेन कौशिक को न्याय देता है, बल्कि पूरे ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक नई उम्मीद जगाता है। कोर्ट ने चेतावनी दी कि राज्य की सुस्ती से अधिकार खोखले हो जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला ट्रांसजेंडर समावेशन को तेज करेगा और 2019 एक्ट को मजबूत बनाएगा। यूनियन को तीन महीने में अपनी नीति लाने का आदेश है, जबकि मामला कंटीन्यूइंग मेंडामस के तहत चलेगा। यह फैसला भारतीय संविधान की समानता की भावना को मजबूत करता है, जहां ट्रांसजेंडर भी मुख्यधारा का हिस्सा बनें।