बिहार में मुस्लिम वोटर्स की भूमिका हमेशा से अहम रही है. एक समय बिहार की राजनीति में इनकी भूमिका निर्णायक मानी जाती थी. लेकिन नीतीश युग आने के बाद इनकी प्रांसगकिता में कमी आई है. पिछले चुनाव में२४३ में से महज १९ मुस्लिम प्रत्याशी ही चुनाव जीत पाए थे. इस बार हालात ज्यादा खराब दिख रहे हैं. यहां के प्रमुख राजनीतिक दलों ने मुस्लिमों को टिकट देने में खासी कंजूसी दिखाई है.
बिहार में चुनाव को लेकर पहले चरण की नामांकन दाखिल करने की मियाद खत्म हो गई है. पहले चरण के चुनाव के लिए प्रतिष्ठित पार्टियों से प्रत्याशियों का ऐलान किया गया, उसमें मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या बहुत ही कम है. राज्य की आबादी में मुसलमानों की कुल हिस्सेदारी करीब १७.७ % है, जबकि उत्तरी सीमावर्ती जिलों में यह संख्या बढ़कर ४० % से भी ज्यादा हो गई है, लेकिन विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की उम्मीदवारों की लिस्ट में मुस्लिम नाम बड़ी मुश्किल से दिखाई पड़ रहे हैं. अभी तक, किसी भी राजनीतिक दल ने राज्य के २४३ विधानसभा सीटों के लिए ४ से ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशियों की घोषणा नहीं की है. हालांकि प्रशांत किशोर की नवगठित जन सुराज पार्टी ने चुनाव में ४० मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारने का वादा किया है और अब तक २१ का ऐलान कर चुकी है.
यह सब कुछ तब हो रहा है जब ८७ निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी २० फीसदी से अधिक है, जिससे उनके वोट किसी भी उम्मीदवार के चुनावी भाग्य में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. हालांकि, राज्य के करीब ७५ % मुसलमान उत्तरी बिहार में रहते हैं. पिछले कुछ सालों में, सीमांचल या सीमावर्ती जिलों कटिहार, पूर्णिया और अररिया में मुस्लिम समाज की आबादी ४० फीसदी तक बढ़ गई है, जबकि किशनगंज जिले में मुसलमान बहुसंख्यक हो गए हैं, और इनकी संख्या हिंदुओं से भी अधिक है और वहां की कुल आबादी का ६८ % से ज्यादा हिस्सा है.

JDU-RJD ने भी दिखाई कंजूसी
बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड इस बार १०१ सीटों पर चुनाव लड़ रही है, ने अब तक सिर्फ ४ मुस्लिम प्रत्याशियों को ही टिकट दिया है. जबकि विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल ने अभी तक अपने उम्मीदवारों की अंतिम सूची जारी नहीं की है, लेकिन उसने अब तक महज ३ मुसलमानों (पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा साहब, रघुनाथपुर निर्वाचन क्षेत्र से; यूसुफ सलाहुद्दीन (सिमरी-बख्तियारपुर सीट से); और मोहम्मद इसराइल मंसूरी (कांटी सीट से) को टिकट दिया है.
राष्ट्रीय दल भी मुस्लिमों से बेपरवाह
राष्ट्रीय दलों की बात करें तो बीजेपी जिन १०१ सीटों पर चुनाव लड़ रही है, उनमें से किसी पर भी उसने कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा है, जबकि दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस, जिसने अभी तक आधिकारिक तौर पर यह ऐलान नहीं किया है कि वह कुल कितनी सीटों पर चुनाव लड़ रही है, ने अब तक महज ४ मुस्लिम उम्मीदवारों की घोषणा की है. हालांकि पार्टी में शामिल कुछ मुस्लिम नेता सवाल उठा रहे हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी का आनुपातिक प्रतिनिधित्व का आह्वान यहां क्यों लागू नहीं हो रहा.
अन्य छोटी पार्टियों की बात करें तो लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान) सत्तारूढ़ एनडीए के हिस्से के रूप में २९ सीटों पर चुनाव लड़ रही है. उसकी ओर से एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार, मोहम्मद कलीमुद्दीन को मैदान में उतारा गया है. कलीमुद्दीन पूर्वोत्तर बिहार की बहादुरगंज सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं.
एनडीए के अन्य दो सहयोगी दलों, जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा, राज्य में ६-६ सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं और ये दोनों भी किसी मुसलमान को टिकट नहीं दे रहे हैं. चुनाव रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी अब तक ११६ उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है, जिनमें से २१ मुसलमान हैं.
अब तक १० % से अधिक नहीं रहा मुस्लिम प्रतिनिधित्व
ऐतिहासिक रूप से, बिहार के मुसलमानों को लंबे समय से चुनावी प्रतिनिधित्व में लगातार कमी का सामना करना पड़ा है. राज्य विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या १९८५ को छोड़कर, कभी भी १० % से अधिक नहीं रही है. हालांकि राज्य को एक मुस्लिम मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर के रूप में मिल चुका है. गफूर १९७० के दशक में दो साल से भी कम समय के लिए राज्य के मुख्यमंत्री पद पर रहे. जबकि उपमुख्यमंत्री के पद पर बिहार में एक भी मुस्लिम नेता नहीं पहुंच सका. हालांकि गुलाम सरवर और जाबिर हुसैन क्रमशः विधानसभा अध्यक्ष और विधानपरिषद के सभापति के पद पर रहे. कुछ मुस्लिम नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी, शकील अहमद, मोहम्मद तस्लीमुद्दीन और मोहम्मद ज़मा खान जैसे कुछ मुस्लिम नेता कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं.साल १९५२ से २०२० के बीच हुए १७ विधानसभा चुनावों में, बिहार ने कुल ३९० मुस्लिम विधायक चुने हैं, जो अब तक चुने गए कुल विधायकों का महज ७. ८ % ही है. १९८५ में सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक तब चुने गए थे, जब बिहार अविभाजित था और उस समय ३२४ सदस्यीय विधानसभा थी. तब ३४ मुस्लिम विधायक बने थे.२०२० के विधानसभा चुनाव में, २४३ सीटों वाली विधानसभा में महज १९ मुस्लिम ही चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे.
आबादी के मुकाबले कम प्रतिनिधित्व
बिहार में निर्वाचन प्रतिनिधित्व के मामले में गरीब और वंचित पसमांदा मुसलमानों की स्थिति और भी खराब है. राज्य के २.३ करोड़ मुसलमानों में ७३ % पसमांदा समुदाय के होने के बावजूद, अब तक महज १८ % मुस्लिम विधायक पसमांदा रहे हैं. साल २०२० में, सिर्फ ५ पसमांदा विधायक थे, जिनमें से ४ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) से और एक राष्ट्रीय जनता दल से जुड़ा हुआ था. पिछले विधानसभा चुनाव में भी मुस्लिम उम्मीदवार खास कामयाब नहीं हो सके थे. जेडीयू के ११ मुस्लिम उम्मीदवार थे, लेकिन सभी चुनाव हार गए. इसी तरह आरजेडी ने १७ मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे और उनमें से महज ८ ही जीत सके. कांग्रेस की ओर से १० मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में थे और ४ ही जीत पाए. ओवैसी की एआईएमआईएम ने २० मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से ५ ही जीते, इसमें भी ४ विधायक साल २०२२ में राष्ट्रीय जनता दल में शामिल हो गए. दूसरी ओर, बहुजन समाज पार्टी के एकमात्र मुस्लिम विधायक ने भी आगे चलकर जेडीयू का दामन थाम लिया.
आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव दावा करते थे कि उनकी पार्टी की चुनावी सफलता की कुंजी संयुक्त ‘MY’ वोट बैंक है, जो कुल वोटर्स का ३१ % (जिसमें १७ % मुस्लिम आबादी और १४ % यादव जाति के लोग शामिल हैं) है, जिसकी वजह से वे १९९० से २००५ तक सत्ता में रहे. हालांकि, उनकी जीत का यह सेट फॉर्मूला तब ध्वस्त हो गया जब जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार ने अत्यंत पिछड़े वर्गों (३६ %) को मिलाकर एक नया वोट बैंक बना लिया और पिछले दो दशकों में अधिकांश समय तक सत्ता जीतने और उसे बनाए रखने के लिए जातिगत गणित का इस्तेमाल किया.