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बौद्ध परम्परा के वाहक हैं कबीर

बौद्ध परम्परा के वाहक हैं कबीर

मध्यकालीन दौर तक बौद्ध धर्म वज्रयान, तंत्रयान, सहजयान से होते हुए नव आयामों में ढल चल रहा था जिसे निर्गुणी भक्ति परम्परा में समाहित करते हुए आगे बढ़ा रहे थे कबीर साहेब। कबीर साहेब का दर्शन सामान्य जन को विभिन्न अंधविश्वासों और कुप्रथाओं से निकालकर परस्पर जोड़ते हुए एकत्रित करता हैहमारे घरों में भी बुद्ध से पहले कबीर ही पहुँचे थे । दादी और मम्मी की ज्यादातर कहानियों में कबीर साहेब और रैदास साहेब ही थे, जब पीएच.डी. करते हुए बौद्ध धर्म-दर्शन को सूक्ष्मता से जानने की ओर प्रवृत्त थे तो कबीर भी हमारी इसी श्रमण परम्परा के निर्वाहक लगे और बौद्ध दर्शन के एक नए व्यख्याकार।

विभिन्न बौद्ध शब्दावली लगभग दो हजार सालों के अंतराल में अत्त से कब आत्म में, शून्यतत्त्व से कब परमतत्त्व में, तंत्र प्रक्रिया कब हठयोग में बदलते हुए कबीर की वाणी में समाहित हो गई, पता नहीं चला। ये आज अटपटा इसलिए लगता है क्योंकि मूल पालि बौद्ध ग्रन्थों के बाद भारत में संस्कृत, मिश्रित संस्कृत, अपभ्रंश और तिब्बती में भी प्रचुर साहित्य लिखा गया जिसे भाषाई स्नेह और समझ न हो पाने के कारण हमारे ज्यादातर विद्वान नहीं पढ़ पाए और उनके अभाव में जैसी उनकी समझ बनी, उन्होंने प्रस्तुत कर दिया। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर बड़ी ही विनम्रता से तथागत बुद्ध के बाद अपने जीवन में कबीर साहेब को महत्त्व देते हैं। उन्हें अपना गुरु मानते हुए टूटी हुई कड़ियों को जोड़ते हैं।

अस्तु, जब हमारे महापुरुषों ने हमें इन महान लोगों को एक धारा में देखने की ओर उन्मुख कर दिया है तो इतना झंझट और संशय क्यों? उसे स्वीकार करके अब आगे के भविष्य को देखिए और उस काम को आगे बढ़ाइए न कि आज भी उसी डिबेट को बनाए रखिए।आज से 623 वर्ष पूर्व आज ही के दिन जेठ्ठ (ज्येष्ठ) मास की पूर्णिमा को कबीर साहेब का जन्म हुआ और पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र एक बार फिर धन्य हुआ भारत में एक ऐसे तार्किक और महान चिंतक के जन्म का साक्षी बनकर।मध्यकाल भारतीय चिंतन और मनन के लिए अंधकार युग ही सिद्ध होता यदि कबीर, रैदास, नानक, धन्ना, पीपा सदृश निर्गुण भक्त पैदा न हुए होते तो।

नालन्दा, सोमपुरा, विक्रमशिला जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नेस्तनाबूद करते ज्ञानभक्षक आक्रांताओं के आक्रमण मध्यकाल की सबसे क्रूर घटनाओं में से हैं जिन घटनाओं को इतिहास का सबसे घृणित चेहरा समझकर समय के साथ ही इतिहास में दफ़न कर दिया है। भारत में बौद्ध और ब्राह्मण परम्परा में ज्ञान को लेकर स्पष्ट अंतर रहा है। ब्राह्मणों ने गुरुकुल व्यवस्था को आगे बढ़ाया और बौद्धों ने विश्वविद्यालय व्यवस्था को। जब बौद्धों के विश्वविद्यालय जलाए गए, उन्हें ध्वस्त किया गया तो कालक्रम में पहली बार सभी का ध्यान गुरुकुलों की ओर गया होगा और चूंकि तब तक गुरुकुल अपना नियम बना चुके थे कि स्त्री और शूद्रों को प्रवेश नहीं देना है जिसे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने सर्वप्रथम तोड़ा और गुरुकुल में सभी वर्गों को अध्ययन – अध्यापन की व्यवस्था की।

मध्यकाल के दौर तक भारत में बौद्ध धर्म – दर्शन को जब राज्याश्रय मिलना बंद हो गया तथा उनके विश्वविद्यालय जला दिए गए ऐसे में पूर्ण संभव है कि बौद्धों ने अपना स्वरूप बदला। इसलिए जो भी अंतिम बचे हुए धम्मधर थे उन्हें वज्रधर या वज्रगुरु कहा गया। ये गुरु शिष्य परम्परा से अपना ज्ञान अपने शिष्यों को सिखाते थे और लोकभाषाओं में अपना ज्ञान बांटते थे। सनद रहे तथागत सम्यक सम्बुद्ध ने ही लोकभाषाओं के द्वारा ज्ञान को प्रसार करने की सलाह दी है। ऐसे में कबीर साहेब ने भी राज्य द्वारा स्थापित फारसी और संस्कृत भाषाओं को नकारकर, जनभाषा की मिश्रित परम्परा को पकड़ा जिसे आजकल के हिंदी विद्वान सधुक्कड़ी भाषा कहते हैं। ये सधुक्कड़ी भाषा पालि/ प्राकृत से अपभ्रंश/पैशाची/शौरशेनी आदि में होते हुए इस्लाम के आगमन के साथ उनकी अरबी, तुर्की, फारसी भाषाओं से भी शब्दावली ग्रहण करती है।

कबीर मध्यकाल के दौर में बौद्ध परम्परा की ज्योति को ऐसे समय में भी प्रज्ज्वलित किए हुए हैं जब भाषिक रूप से भारत में विविधता आ चुकी है, देशी भाषाओं के साथ विदेशी भाषाओं के भी शब्द जनमानस के हृदय में स्थान बना चुके हैं। कबीर साहेब द्वारा जितनी शब्दावली प्रयुक्त की गई है उसका अधिकांश स्रोत वज्रयान और अपभ्रंश बौद्ध साहित्य में ही मिलता है, बस कड़ियाँ आपको जोड़नी हैं।आज के भाषा विज्ञान में विशेषकर भारत में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज इतने भारी भरकम शब्द केवल और केवल एक परम्परा विशेष के प्रभाव को सभी भारतीय भाषाओं पर प्रभाव दिखाने के लिए गढ़े गए राजनीतिक शब्द हैं। भाषा पर कबीर साहेब के विचार पढेंगे तो आपका मस्तिष्क उस सत्य से रूबरू होगा जो नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की अपोह-परंपरा से आपको जोड़ता है। बौद्ध दर्शन की शब्दावली का इतना गड्ड मड्ड ढंग से प्रयोग किया गया है कि लोग आज भगवान, धर्म, संस्कृत, असंस्कृत जैसे अपने ही शब्दों से घृणा करने लगें हैं। भाषाविज्ञान भारत में एक टूल के रूप में प्रयोग हुआ है संस्कृति को थोपने के लिए, भाषाविज्ञान के गढ़े गए सिद्धांत पूर्वाग्रह ग्रसित मिथ्या धारणा और भाषाई साम्राज्यवाद पर टिके हुए हैं।

कबीर साहेब का एक प्रचलित दोहा लेते हैं और उसे अपनी बौद्ध परम्परा में समझने की कोशिश करते हैं।गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।गोविन्द शब्द, गो (अर्थात पृथ्वी) और लाभ अर्थ वाली विद् धातु से श एवं नुम् प्रत्ययों के योग से निष्पन्न होता है जिसका शब्दिक अर्थ होगा पृथ्वी को लाभ पहुँचाने वाला और ये सर्वविदित है कि शास्ता तथागत के बुद्धत्व से पूरी पृथ्वी लाभान्वित हुई। अब कबीर साहब के इस दोहे को महायान (सहज/वज्र-यान) की दृष्टि से अर्थ ग्रहण कीजिए जहां बुद्ध की शरण से पहले गुरु (लामा) की शरण गमन करना होता है। गुरु (लामा) के माध्यम से ही गोविंद (बुद्ध) तक पहुंचा जा सकता है यही वज्रयान का सार है। उत्तरभारतीय लोगों ने वज्रयान को बहुत गलत ढंग से ग्रहण किया है वामपंथियों के कुप्रभाव के कारण। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन द्वारा तिब्बत और रूस द्वारा मंगोलिया पर किए गए अत्याचारों पर बात करने से बचने के लिए वामपंथी विद्वानों ने आपको ही आपकी परम्परा से नफ़रत सिखा दी है और वज्रयान को ब्राह्मणवाद की मिलावट और भी न जाने क्या – क्या कहके प्रचारित कर दिया है। सत्य जानिए और अपने महापुरुषों को अपनी परम्पराओं से समन्वित कीजिए। अस्तु, कबीर साहेब के जन्मदिन पर आप सभी को मंगलकामनाएं, साहेब बंदगी। आप सभी सुखी रहे, निरोगी रहे और सदैव मुस्कुराते हुए किसी दूसरे को गरियाने के स्थान पर अपनी ज्ञान परम्परा को समृद्ध करते रहें।

© डॉ. विकास सिंह

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