बाबा साहब के ये विचार आज भी प्रासंगिक है। बहुजन राजनीति से उपजे बहुजन नेताओं ने सत्ता तक पहुँचने को ज़रूर संभव कर दिखाया लेकिन उन्होंने प्रचार के तंत्र विकसित करने और अपना नेशनल बहुजन मीडिया खड़ा करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
बाबा साहब डॉ आंबेडकर ने बतौर पत्रकार भी बेहद शानदार काम किया है। उन्होंने अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिए भी अपने आंदोलन को ना सिर्फ़ धार दी बल्कि पूरी दुनिया को भारत के अछूतों की दयनीय हालत के बारे में बताया। आज हमारे पास टीवी, वेबसाइट और सोशल मीडिया जैसे माध्यम हैं लेकिन बाबा साहब के दौर में अख़बार से बड़ा कोई मीडिया नहीं होता था। लेकिन आज की तरह ही उस वक़्त भी मीडिया पर ब्राह्मण-बनिया जातियों का ही वर्चस्व था। आज बीजेपी मीडिया को कंट्रोल करती है तो उस वक्त कांग्रेस ब्रिटिश भारत के मीडिया को कंट्रोल करती थी।
कांग्रेसी मीडिया (बाबा साहब कांग्रेसी मीडिया ही कहते थे) में अछूतों के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। अछूतों के मुद्दों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन बाबा साहब ये बात अच्छे से समझते थे कि अगर अपनी बात सत्ता तक पहुँचानी है तो मीडिया से बड़ा कोई हथियार नहीं। इसलिए उन्होंने ख़ुद ही लोक भाषाओं में अपने अख़बार और पत्र-पत्रिकाएं निकाली। मूकनायक साप्ताहिक (1920), मराठी में बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930) और प्रबुद्ध भारत (1956) जैसे पत्र-पत्रिकाएं निकाली। यानी अपनी ज़िंदगी के आख़िरी समय तक वो पत्रकारिता से जुड़े रहे। अपनी 65 साल की ज़िंदगी में उन्होंने 36 साल तक पत्रकारिता की।