भिक्खु नागसेन और राजा मीनान्डर, जो कालान्तर में मिलिन्द नाम से विख्यात हुए, का सुप्रसिद्ध संवाद है, जो मिलिन्द प्रश्न नामक ग्रंथ में संग्रहीत है। राजा मिलिन्द भिक्खु नागसेन से मिलने गये, उनको नमस्कार और अभिनन्दन कर एक ओर बैठ गये।
नागसेन ने भी जिज्ञासु व विद्वान राजा का अभिनन्दन किया, तब राजा मिलिन्द ने प्रश्न किया – भन्ते, आप किस नाम से जाने जाते हैं, आप का शुभ नाम क्या है ? महाराजा ! मैं ‘नागसेन’ नाम से जाना जाता हूँ और मेरे सब्रह्मचारी भी मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। महाराज, यद्यपि माँ-बाप नागसेन, सूरसेन, वीरसेन या सिंहसेन ऐसा कुछ नाम दे देते हैं, किन्तु ये सभी केवल व्यवहार के लिए संज्ञाएं भर हैं, क्योंकि व्यवहार में ऐसा कोई पुरुष (आत्मा) नहीं है। भिक्खु नागसेन के इस असामान्य उत्तर से चकित सम्राट मिलिन्द ने उपस्थित समुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा- मेरे पांच सौ यवन और अस्सी हजार भिक्खुओं, आप लोग सुनें, भन्ते नागसेन का कहना है ‘यथार्थ में कोई आत्मा नहीं है’, उनके इस कथन को क्या समझना चाहिए ? फिर भन्ते को सम्बोधित करके पूछा- यदि कोई एक आत्मा नहीं है, तो कौन आपको चीवर, भिक्षापात्र, शयनासन और ग्लानप्रत्यय (औषधि) देता है ? कौन उसका भोग करता है ? कौन शील की रक्षा करता है ? कौन ध्यान-साधना का अभ्यास करता है ? कौन आर्यमार्ग के फल निर्वाण का साक्षात्कार करता है ? कौन पाणातिपात- प्राणि हिंसा करता है ? कौन अदत्तादान (चोरी) करता है ? कौन मिथ्या भोगों में अनुरक्त होता है ? कौन मिथ्या भाषण करता है ? कौन मद्य पीता है ? कौन पांच अन्तराय कारक कर्मों को करता है? यदि ऐसी बात है, तो न पाप है और न पुण्य, न पाप और पुण्य कमों से कोई फल होते हैं।
भन्ते नागसेन! यदि कोई आपकी हत्या कर दे, तो किसी की हत्या नहीं हुई। भन्ते, तब, तो आपका कोई आचार्य भी नहीं हुआ, कोई उपाध्याय भी नहीं और आपकी उपसम्पदा भी नहीं हुई। आप कहते हैं कि आपके सब्रह्मचारी आपको नागसेन नाम से पुकारते हैं, तो यह नागसेन क्या ? भन्ते, क्या ये केश नागसेन हैं? ‘नहीं महाराज !’ ‘ये रोयें नागसेन हैं ?’ ‘नहीं महाराज !’ ‘ये नख, दांत, चमड़ा, मांस, स्नायु, हड्डी, फुफ्फुस, आंत, पतली आंत, पेट, मल, पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, मेद, आँसू, चर्बी, लार, नेटा, लसिका, दिमाग नागसेन हैं ?’ ‘नहीं महाराज!” तब क्या आपका रूप नागसेन हैं ?’ ‘नहीं महाराज !’ ‘तो क्या आपकी वेदनाएं, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान नागसेन हैं ?’ ‘नहीं महाराज!’ ‘ तो क्या ये सब मिल कर पंच स्कन्ध नागसेन हैं?’ ‘नहीं महाराज!’ ‘तो इन रूपादि से भिन्न कोई नागसेन हैं?’ ‘नहीं महाराज!‘ ‘भन्ते, मैं आपसे प्रश्न पूछते-पूछते थक गया हूँ किन्तु नागसेन क्या हैं इसका पता नहीं लगा, तब क्या नागसेन केवल शब्द मात्र है? आखिर नागसेन हैं कौन? भन्ते, आप झूठ बोलते हैं कि नागसेन कोई नहीं है। एक राजा और भिक्खु के बीच, शिष्य और गुरु के बीच, जिज्ञासु और मर्मज्ञ के बीच ऐसा निर्भीक संवाद इतिहास की एक अद्वितीय घटना है।
भिक्खु नागसेन के समाधानों से संतुष्ट वह यूनानी सम्राट उनका शिष्य हो गया था, उसने उनसे धम्म दीक्षा लेकर बुद्ध धम्म स्वीकार कर बौद्ध हो गया और मीनान्डर नामान्तरित होकर मिलिन्द हो गया।
अस्तु, प्रश्न कर-कर के थके राजा मिलिन्द से भिक्खु नागसेन ने पूर्ववत सौम्य-सुधीर स्वर में कहा- महाराज, आप सुकुमार युवक हैं, इस तपती दोपहर में गर्म बालू तथा कंकड़ों से भरी भूमि पर पैदल चल कर आने से आप के पैर दुःखते होंगे, शरीर थक गया होगा, मन असहज होगा और शरीर में पीड़ा हो रही होगी। क्या आप पैदल चल कर यहाँ आए है या किसी सवारी पर?
1. भन्ते ! मैं पैदल नहीं, बल्कि रथ पर आया हूँ। 2. महाराज ! यदि आप रथ पर आए हैं, तो मुझे बताएं कि आपका रथ कहाँ है ?
राजा मिलिन्द ने रथ की ओर अंगुलीनिर्देश किया, तब भन्ते नागसेन ने पूछा- राजन ! क्या ईषा रथ है ? ‘नहीं भन्ते!’ ‘क्या अक्ष रथ है ?’ ‘नहीं भन्ते !’ ‘क्या चक्के रथ हैं ? ‘नहीं भन्ते !’
‘राजन! क्या रथ का पंजर रथ है?’ ‘नहीं भन्ते !’ ‘क्या रथ की रस्सियाँ रथ हैं ?’ ‘नहीं भन्ते !’ ‘क्या लगाम रथ है ?’ ‘नहीं भन्ते !’ ‘क्या चाबुक रथ है ?’ ‘नहीं भन्ते !’ ‘राजन! क्या ईषादि सभी एक साथ रथ है?’ ‘नहीं भन्ते!’ ‘क्या ईषादि से परे कहीं रथ है?’ ‘नहीं भन्ते!’
‘महाराज, आपसे पूछते-पूछते मैं थक गया किन्तु यह पता नहीं लगा कि रथ कहाँ है। क्या रथ केवल शब्द मात्र है? अन्ततः यह रथ है क्या? महाराज, सारे जम्बुद्वीप में आप सबसे बड़े राजा हैं, भला किसके डर से आप झूठ बोलते हैं? राजा मीनान्डर और नागसेन का यह प्रसिद्ध संवाद सागलपुर, वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के स्यालकोट नगर में हुआ था, जो उस समय सम्राट की राजधानी थी।
इतिहासकार प्लूटार्क ने मीरान्डर को न्यायी, विद्वान और लोकप्रिय सम्राट लिखा है। खुदाई में मिले महत्वपूर्ण बाइस सिक्कों से मीनान्डर के साम्राज्य विस्तार का संकेत कश्मीर तक मिलता है, क्योंकि वे सिक्के काबुल से लेकर मथुरा को आच्छादित करते हुए कश्मीर तक मिलते हैं। बुद्ध के काल में भारत में जामुन के पेड़ बहुतायत में पाये जाते थे इस कारण उस समय भारत की शास्त्रीय संज्ञा जम्बूद्वीप थी। पालि और संस्कृत में जामुन को जम्बु कहते हैं। इसीलिए भन्ते नागसेन राजा मीनान्डर को भारत की तत्कालीन शास्त्रीय संज्ञा जम्बुद्वीप का महान राजा कह कर सम्बोधित करते हैं।
‘पांच सौ यवनों और मेरे अस्सी हजार भिक्खुओं! आप लोग सुनें, राजा मिलिन्द ने कहा “मैं रथ पर यहाँ आया”, किन्तु मेरे पूछने पर कि रथ कहाँ है, वे मुझे बता नहीं पाये। क्या उनकी बात मानी जा सकती है?’ इस पर उन पांच सौ यवनों ने आयुष्मान नागसेन को साधुवाद दे कर राजा मिलिन्द से कहा- महाराज, यदि हो सके, तो आप इसका उत्तर दें, तब राजा मिलिन्द ने कहा- भन्ते! मैं झूठ नहीं बोल रहा है। ईषादि रथ के अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिए ‘रथ’ ऐसा नाम कहा गया है। महाराज, बहुत ठीक, अपने जान लिया कि रथ क्या है। इसी प्रकार मेरे केश इत्यादि के आधार पर केवल व्यवहार के लिए “नागसेन” ऐसा एक नाम जाना जाता है लेकिन परमार्थ में नागसेन नामक कोई आत्मा नहीं है। भिक्खुनी वज्रा ने भगवान बुद्ध के सामने कहा था- जैसे अवयवों के आधार पर ‘रथ’ संज्ञा होती है उसी प्रकार स्कन्धों के होने से ‘सत्व’ समझा जाता है।
“ भन्ते! आश्चर्य है, अद्भुत है! इस जटिल प्रश्न को आपने बड़ी खूबी से सुलझा दिया। विस्मयहर्षित राजा मिलिन्द ने कहा ‘यदि इस समय स्वयं भगवान बुद्ध भी होते, तो वे भी अवश्य साधुवाद देते। भन्ते नागसेन! आपने इस जटिल प्रश्न को बड़ी खूबी से सुलझा दिया, साधु, साधु, साधु…’ भिक्खु नागसेन ने बुद्ध धम्म के एक गूढ़ तत्व को, अनात्म को, समझाने का प्रयास किया है। ‘मिलिन्द प्रश्न’ अथवा ‘मिलिन्द-पन्हो’ के दूसरे परिच्छेद के ‘लक्षण प्रश्न’ अध्याय का यह संवाद अंश वास्तव में एक जटिल विषय को सहजता से प्रस्तुत करता है। जटिल मात्र इसलिए कि यह विषय वार्तागम्य नहीं वरन अनुभवगम्य है। अनुभवगम्य तत्व को शब्दों से, संवाद से, अक्षरों से समझ या समझा पाना वास्तव में महान कौशल है, प्रतिभा है। इस ग्रंथ की शैली सुगमता की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगता है कि मूल त्रिपिटक का अंग न होते हुए भी इसे एक बौद्ध सूत्र का दर्जा प्राप्त है। तिब्बती और चीनी संस्करणों में इसे ‘नागसेन-भिक्खु-सूत्र’ कहते हैं, जिसका चीनी शीर्षक ‘ ना-से-पि-ब्लू-किन्’ है।
बौद्ध शब्दावली में बुद्ध, धम्म और संघ को त्रिरत्न कहते हैं। जिसके जीवन में ये तीन रत्न हैं वही सम्पन्न है, समृद्ध है अथवा धम्मदृष्टि से वह विपन्न है, शेष सम्पन्नताएं उसके पास चाहे जितनी भी हों।त्रिरत्नों के प्रकाश में कहना चाहूँगा कि बुद्ध की देशनाओं में भी अनेक त्रिरल हैं, जिसमें सम्पूर्ण बुद्ध धम्म समा जाता है, यथा, त्रिपिटक, शील-समाधि-प्रज्ञा, दान-शील-ध्यान, प्रज्ञा-करुणा-मैत्री इत्यादि। ऐसा ही एक त्रिरत्न है दुःखता, अनित्यता, अनात्मता। यह अनुभवगम्य तत्व है, जिन्हें व्याख्यानों, वार्ताओं, संवादों, प्रवचन पुस्तकों से बौद्धिक रूप से समझा तो जा सकता है लेकिन अनुभव नहीं किया जा सकता। जैसे तैराकी पर व्याख्यान सुन कर या पुस्तक पढ़ कर तैराक नहीं हुआ जा सकता। तैराक होने के लिए नदी में उतरना होगा। सिर्फ पुस्तक पढ़ कर तैराक होने का गुमान है, तो डूबने का खतरा भी हमेशा है। ऐसे ही दुःखता, अनित्यता और अनात्मता को अनुभूति के तल पर आत्मसात करने का साधन है ध्यान, विपस्सना। इसे सच में ध्यान की नदी में उतर कर ही समझा जा सकता है। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि व्याख्यानों, प्रवचनों, देशनाओं व पुस्तकों की उपयोगिता ही नहीं है। भगवान बुद्ध कहते थे- अंगुली ही चाँद नहीं है। शब्द चाँद की तरफ इशारा करती अंगुली है, चाँद को देखो, अंगुली मत पकड़ो। भिक्खु नागसेन ने शब्दों के इशारे से राजा मिलिन्द को अनात्म का चाँद दिखा दिया। कहते हैं परवर्तीकाल में राजा मिलिन्द ने भन्ते नागसेन से उपसम्पदा प्राप्त की, वह भिक्खु होकर अर्हत्व को उपलब्ध हुआ। प्लूटार्क ने लिखा है कि उसके अस्थि अवशेषों को लेकर विवाद तक हुआ और लोगों ने उन पर बड़े-बड़े स्तूप बनवाए।खुदाई में मिले उसके सिक्कों पर एक तरफ धम्म चक्र उत्कीर्णित है और दूसरी तरफ लिखा मिलता है- महरज धर्मिकस मेनन्ट्रस- BASILEOS DIKAIOU MENANDROU- युनानी भाषा में। धर्मिकस अथवा धर्मिकस्य, धम्म राजा, धर्मराज इत्यादि सम्बोधन बौद्ध साहित्य में उपासक राजाओं, यथा सम्राट अशोक, के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
वैसे भारत और यूनान के बीच गुरु और शिष्य का रिश्ता ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में ही कायम हो गया था जब सम्राट अशोक ने आचार्य महारक्षित को धम्म प्रचार के लिये यूनान भेजा था, लेकिन आगामी सदी में भिक्खु नागसेन ने यूनानी सम्राट मीनान्डर को बुद्धानुयायी मिलिन्द बना कर इस रिश्ते पर धम्म-मुद्रा लगा दी, मोहर लगा दी। यूनान को भारत से धम्म मिला। प्रतिफल में यूनान ने मूर्तिकला के माध्यम से अपना अनुराग व्यक्त किया। यूनानी मूर्तिकला ने बुद्ध की मूर्तियों में अपना अनुराग उड़ेल कर रख दिया। बुद्ध की मूर्तियों में यूनानी कला एक प्रतिमान है। भारत और यूनान के इस सांस्कृतिक रिश्ते को चौथी शताब्दी में बुद्धघोष ने नया आयाम दिया जब उन्होंने यूनान की नाट्य विधा को भारत में स्थापित किया। नाटकों में पर्दे का शास्त्रीय सम्बोधन यवनिका है, जो इस बात का संकेत है कि पर्दे का चलन यवन अर्थात यूनान से आया। यूनानियों को भारतीय उत्पाद इलायची बहुत पसंद थी। इसलिए संस्कृत में इलायची का एक नाम ‘यवनप्रिय’ भी है।
इंडो-यूनानी बौद्ध शासक में मिनाण्डर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। मिनांडर डेमेट्रियस का छोटा भाई था। मिनांडर ने डेमेट्रियस के साथ ही भारतीय युद्धों में भाग लिया था।मिनाण्डर का शासनकाल 160-120 ई.पूर्व था।
अनेक लेखकों जैसे – स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि ने मिनांडर की गणना महान यवन विजेताओं में की है। उसका एक लेख, शिवकोट की धातुगर्भ मंजूषा के ऊपर अंकित प्राप्त हुआ है। इससे पता चलता है कि पेशावर तक उसके अधिकार में था। मिनाण्डर को “एशिया का संरक्षक” कहा गया है।
मिनांडर की राजधानी साकल थी। मिनांडर का साम्राज्य विस्तार- पूर्व में मथुरा व दक्षिण में भारूकच्छ( गुजरात) तक था। यूनानी स्ट्रेबो के अनुसार मिनाण्डर ने पाटलीपुत्र तक आक्रमण किया था और इसकी पुष्टि कौशाम्बी के निकट रेह गाँव से प्राप्त अभिलेख से होती है।
मिनाण्डर के सिक्कों पर हाथी का चित्र, धर्म चक्र(बौद्ध धर्म), धर्मिक्स शब्द मिलता है, जो उसके बौद्ध धर्म को अपनाने के प्रमाण हैं। इसकी पुष्टि बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपन्हों से भी होती है। यह ग्रंथ बौद्ध धर्म से संबंधित तथा पालि भाषा में लिखा हुआ है। इस ग्रंथ में बौद्ध भिक्षु नागसेन तथा मिनांडर के बीच अनात्मवाद को लेकर दार्शनिक सिद्धांत को लेकर दार्शनिक वार्तालाप है।
प्लूटार्क ने लिखा है कि मिलिन्द बड़ा न्यायी, विद्वान् और जनप्रिय राजा था। उसकी मृत्यु के बाद उसकी हड्डियों पर बड़े-बड़े स्तूप बनवाये गये। मिलिन्द को शास्त्र चर्चा और बहस की बड़ी आदत थी, और साधारण पंडित उसके सामने नहीं टिक सकते थे। बौद्ध ग्रंथों में उसका नाम ‘मिलिन्द’ आया है। ‘मिलिन्द पन्हो’ नाम के पालि ग्रंथ में उसके बौद्ध धर्म को स्वीकृत करने का विवरण दिया गया है। उसके अनेक सिक्कों पर बौद्ध धर्म के ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ का चिह्न ‘धर्मचक्र’ बना हुआ है, और उसने अपने नाम के साथ ‘ध्रमिक’ (धार्मिक) विशेषण दिया है।
आचार्य राजेश चंद्रा
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