वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने फेसबुक पर यह टिप्पणी की है। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने ही मनुस्मृति का संविधान हटाकर देश को प्रगतिशील, समाजवादी, समानता पर आधारित संविधान दिया था. सदियों से चलें आ रहें ब्राह्मणवाद को महात्मा फुले, राजश्री छत्रपति शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने लगभग खोखला कर दिया है. अब अगर इस देश का ओबीसी वर्ग समझ जाएं तो यह जड़ से नष्ट हो सकता है।
दिलीप मंडल लिखते है,
ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था को दलित ख़त्म नहीं कर सकते। उन्हें इस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए। ये ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी ओबीसी और अन्य किसान जातियों की है। दलित (यानी बाबा साहब के अनुसार Oppressed Classes यानी पूर्व की अस्पृश्य जातियाँ) वर्ण व्यवस्था के अंदर नहीं हैं। चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों में उनका स्थान नहीं है। वे वर्ण व्यवस्था में बाहरी हैं।
जनगणना में शुरुआत में उनकी गिनती अलग हुई। जब अंग्रेजों ने चुनाव वग़ैरह कराना शुरू किया तो संख्या का गणित अपने पक्ष में करने के लिए उन्हें हिंदुओं में गिन लिया गया। आर्य समाज और कांग्रेस का इसमें काफ़ी रोल रहा। दलित अगर अलग गिने जाते तो ब्रिटिश भारत में हिंदू और मुसलमानों की संख्या बराबर हो जाती। फिर तो बहुत कुछ अलग तरीक़े से होता। दलित सामाजिक समूह के लिए बाबा साहब ने कभी नहीं कहा कि वे हिंदुओं का सुधार करें। जाति का विनाश करें। ये लोग यह काम कर भी नहीं सकते। एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट का भाषण दलितों नहीं, शूद्रों की सभा में देने के लिए लिखा गया था। इस सभा के आयोजक संतराम बीए, दलित नहीं शूद्र थे।
दलितों की मुक्ति के लिए बाबा साहब ने बौद्ध धर्म का रास्ता बताया, जिसे ज़्यादातर दलितों ने माना नहीं। जिन्होंने मान लिया वे देश के सबसे शिक्षित और प्रगतिशील लोग बन गए। शूद्र यानी ओबीसी और किसान जातियाँ कभी अछूत नहीं रहीं। हिंदुत्व का सारा बोझ यही ढोती हैं। इनका अतीत गौरवशाली रहा है। इनके राजघराने रहे हैं। ब्राह्मणों से झगड़े में इन्हें पतित बनाया गया। इनको सबसे नीचे डाल दिया गया। इनके श्रम की मुफ़्तख़ोरी की गई, जो अब भी जारी है। ये जातियाँ जब उठ खड़ी होंगी तो इनके कंधे पर सवार ब्राह्मणवाद गिर जाएगा। उससे पहले नहीं हो पाएगा।