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ओबीसी जनगणना क्यों नहीं ! हक-अधिकार से वंचित है बहुजन

ओबीसी जनगणना क्यों नहीं ! हक-अधिकार से वंचित है बहुजन

किसी भी विकासशील देश की प्रगति तभी संभव है जब उस देश में के लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत हों। भारत में लगभग 6000 से भी अधिक जातीय और उनकी भी उपजातिया है. मनुस्मृति के कारण दुनिया में भारत एकमेव ऐसा देश है जहा लोगों की कीमत कर्म से नहीं उसकी जाति से होती है. भारत में आज भी कई जातीयां हाशिये पर है अगले कुछ दिनों में जब देश में जनगणना प्रक्रिया शुरू होने जा रही है तो जातीय आधार पर जनगणना की मांग ने भी जोर पकड़ लिया है।

यूपी विधानसभा में पिछले दिनों यह मुद्दा शिद्दत के साथ उठा। बिहार विधानसभा में जहां जेडीयू-बीजेपी की साझा सरकार है, वहां तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना कराने का प्रस्ताव पास कराकर केंद्र को भेज दिया है। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जातिगत जनगणना के समर्थन में प्रस्ताव पास कर चुकी है और इसी तरह कई दूसरे राज्यों से भी आवाज मुखर होने लगी है। वैसे यह पहला मौका नहीं है जब जातिगत जनगणना की मांग उठी है। यह मांग मान्यवर कांशीराम के कारण अब लगातार उठती रही है । डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने ओबीसी वर्ग के लिए अपना इस्तीफा दिया था. उन्होंने संविधान में आर्टिकल 340 के तहत ओबीसी वर्ग के लिए स्वतंत्र आयोग बनाने की तथा उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण तथा अन्य सुविधाएं देने की मांग की थी.

देश में 90 के दशक में ‘मंडल’ के दौर में पिछड़ा वर्ग के नेतृत्व में क्षेत्रीय दलों के उभार ने इस मांग को धार दी। ऐसा भी नहीं कि भारत में पहले कभी जातीय आधार पर जनगणना हुई नहीं, आजादी से पहले तक भारत में जातीय आधार पर जातीय जनगणना होती थी, लेकिन 1941 से जातीय आधार पर जनगणना बंद हुई लेकिन एससी-एसटी वर्ग की गणना अब भी की जाती है। भारत में आखिरी जाति आधारित जनगणना अंग्रेजों के दौर में 1931 में हुई थी। अभी तक इसी आंकड़े से ही काम चल रहा है। इसी आंकड़े के आधार पर बताया गया कि देश में ओबीसी आबादी 52 फीसदी है। जाति के आंकड़ों के बिना काम करने में मंडल आयोग को काफी दिक्कत आई और उसने सिफारिश की थी कि अगली जो भी जनगणना हो उसमें जातियों के आंकड़े इकट्ठा किए जाएं। 

2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना हुई लेकिन इस जनगणना में एकत्रित किए गए जाति आधारित आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया। 1931 में किसी जाति को पिछड़ा मानने के लिए पूरे राज्य या रियासत की जाति को आधार बनाया गया था। 2011 में जिलेवार जातियों का पिछड़ापन देखा गया था। इस अनुसार कोई जाति किसी जिले में पिछड़ी तो किसी दूसरे जिले में अगड़ी भी हो सकती है। अगड़ा और पिछड़ा ये एक बहुत बड़ा फर्क है क्योंकि इसी के आधार पर आरक्षण के भी मायने हैं।

पिछड़ा वर्ग के नेताओं का मानना है कि देश में उनकी आबादी लगभग 60 प्रतिशत है। जाहिर सी बात है कि अगर अधिकृत रूप से ये आंकड़े सामने आ जाते हैं तो देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव का गवाह बन सकता है। इससे न केवल पिछड़ा वर्ग की राजनीतिक और सामाजिक ताकत बढ़ेगी बल्कि इस वर्ग से आने वाले नेताओं को भी काफी मजबूती मिलेगी। राजनीति में उच्च वर्ग की जातियों का प्रभुत्व खत्म हो सकता है। क्षेत्रीय आधार पर नए राजनीतिक दलों का उदय हो सकता है। 90 के दशक में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार के समय मान्यवर कांशीराम के दबाव के कारण मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू किए जाने के फैसले का असर ही कहा जाएगा कि पिछड़ा वर्ग के बीच जबरदस्त राजनीतिक चेतना पैदा हुई थी और वहीं से देश में राजनीतिक बदलाव का दौर भी शुरू हुआ। जातीय आधार पर जनगणना के पक्षधर नेताओं का कहना है कि देश में जब जातियों के आधार पर आरक्षण और उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं हैं तो फिर बगैर उनकी आबादी की गणना के उसका उन्हें सही लाभ मिल पाना संभव ही नहीं है। एक तर्क यह भी है कि जब देश में पशुओं की जनगणना होती है कि देश में अलग-अलग प्रकार के पशुओं की कितनी-कितनी आबादी है तो जातिवार इंसानों की गणना से गुरेज क्यों?- 

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