आज सुप्रीम कोर्ट में उस ऐतिहासिक केस की सुनवाई हुई , जिसमें बोधगया महाबोधि महाविहार को बौद्ध समुदाय को सौंपने की मांग की गई है। मगर इस बार भी दुनिया भर के बौद्धों को निराश ही होना पड़ा क्योंकि आज फिर मामले को अगली सुनवाई पर टाल दिया गया है. एडवोकेट शैलेश नारनरे जो सुप्रीम कोर्ट में महाबोधि महाविहार के पक्ष में पैरवी कर रहे हैं उन्होंने यह जानकारी दी.
नयी दिल्ली : महाबोधि महाविहार मुक्ति आंदोलन से जुड़ी बड़ी खबर ! आज सुप्रीम कोर्ट में उस ऐतिहासिक केस की सुनवाई हुई , जिसमें बोधगया महाबोधि महाविहार को बौद्ध समुदाय को सौंपने की मांग की गई है। मगर इस बार भी दुनिया भर के बौद्धों को निराश ही होना पड़ा क्योंकि आज फिर मामले को अगली सुनवाई पर टाल दिया गया है. एडवोकेट शैलेश नारनरे जो सुप्रीम कोर्ट में महाबोधि महाविहार के पक्ष में पैरवी कर रहे हैं उन्होंने यह जानकारी दी. आज हमने एक अमेंडमेंट एप्लीकेशन कोर्ट के सामने पेश किया है. जिसमे कुछ और कागजात जोड़े गए हैं. हमारे प्रतिद्वंदी कितनी भी कोशिश करे मगर जिसको नाकारा नहीं जा सकता ऐसी कुछ बातें हमने कोर्ट के सामने रखी है.ऐसी जानकारी एडवोकेट शैलेश नारनरे ने दी. जो सुप्रीम कोर्ट में महाबोधि महाविहार के पक्ष में पैरवी कर रहे हैं। इस वक़्त पूज्य भदंत आर्य नागार्जुन सुरेश ससाई जी भी मौजूद थे जिन्होंने यह याचिका दायर की है।
बौद्ध समुदाय महाबोधि मंदिर के प्रबंधन पर पूरा नियंत्रण चाहता है और १९४९ के मंदिर अधिनियम को निरस्त करने की मांग कर रहा है, जिसके तहत अब हिंदू और बौद्ध दोनों के सदस्य मंदिर का प्रबंधन करते हैं। यह एक लंबा कानूनी और धार्मिक संघर्ष है जिसकी शुरुआत अनागारिक धर्मपाल जैसे नेताओं ने 1891 में की थी जब उन्होंने देखा कि मंदिर पर हिंदुओं का नियंत्रण है।
पिछले ८ महीनों से बौद्ध भिक्षु कर रहा धरना प्रदर्शन
बिहार के विश्व प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थस्थल बोधगया में विगत १२ फ़रवरी से बौद्ध भिक्षु धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. उनकी मांग है कि बीटी एक्ट यानी बोधगया टेंपल एक्ट, १९४९ ख़त्म किया जाए. इस एक्ट के तहत बनने वाली बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमिटी (बीटीएमसी) में बौद्धों के साथ-साथ हिंदू धर्मावलंबियों को सदस्य बनाने का प्रावधान है, जिसका विरोध बौद्ध भिक्षु लंबे समय से कर रहे हैं.
बौद्ध भिक्षु पहले महाबोधि मंदिर के पास आमरण अनशन पर बैठे थे, लेकिन २७ फ़रवरी को प्रशासन ने इन्हें महाबोधि मंदिर परिसर से हटा दिया.अब महाबोधि मंदिर से तक़रीबन एक किलोमीटर दूर दोमुहान नामक जगह पर ये बौद्ध भिक्षु धरना प्रदर्शन कर रहे हैं.बोधगया में बोधि वृक्ष (बोटैनिकल नाम- फ़िकस रिलीजिओसा) के नीचे भगवान बौद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था. सम्राट अशोक ने इस जगह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व एक मंदिर बनवाया था.
अनागरिक धर्मपाल ने मंदिर पर बौद्धों के नियंत्रण के लिए चलाया पहलाआंदोलन
बोधगया टेंपल की वेबसाइट के मुताबिक़, “१३ वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारियों के हमले तक बोधगया मंदिर अपने अनुयायियों के हाथ में था.””१५९० में घमंडी गिरी नाम के महंत बोधगया पहुंचे और उन्होंने समय के साथ महाबोधि मंदिर पर क़ब्ज़ा कर लिया. उन्होंने यह दावा किया कि वही महाविहार (महाबोधि मंदिर) के वैध उत्तराधिकारी हैं.” बाद में इंग्लैंड के पत्रकार और लेखक एडविन अर्नोल्ड ने १८८५ में महाबोधि मंदिर को बौद्धों को वापस लौटाने का सवाल उठाया.इसके बाद श्रीलंका के अनागरिक धर्मपाल १८९१ में बोधगया आए और महाबोधि सोसाइटी की स्थापना करके मंदिर पर बौद्धों के नियंत्रण के लिए आंदोलन चलाया.
बाद में यह मुद्दा साल १९२२ में गया में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में उठा.राजेंद्र प्रसाद सहित कई नेताओं के हस्तक्षेप के बाद अक्तूबर 1948 में बोधगया टेंपल बिल बिहार विधानसभा में लाया गया, जो१९४९ में अस्तित्व में आया.२८ मई १९५३ को पहली बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमिटी (बीटीएमसी) ने अपना काम संभाला. बोधगया टेंपल एक्ट (बीटी एक्ट) के प्रावधानों के मुताबिक़, बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमिटी में कुल आठ सदस्य होंगे, जिसमें चार बौद्ध और चार हिंदू होते हैं.कमिटी के पदेन अध्यक्ष गया के डीएम होते हैं और उनका हिंदू होना लाज़िमी है. अगर गया के डीएम गैर-हिंदू हैं, तो राज्य सरकार को किसी हिंदू सदस्य को अध्यक्ष नॉमिनेट करना होगा.हालांकि, बाद में साल 2013 में राज्य सरकार ने बीटी एक्ट में संशोधन करते हुए डीएम के ‘हिंदू’ होने की बाध्यता को समाप्त कर दिया.लेकिन, कमिटी में हिंदू सदस्य की मौजूदगी का बौद्ध धर्मावलंबी लगातार विरोध करते रहे हैं.


