।।कुछ शब्द।।-राजेश चन्द्रा- एक शब्द और विशेष व्याख्या की मांग करता है। वह शब्द है आर्य। जैसे आर्य सत्य, आर्य आष्टांगिक मार्ग, आर्य विनय, इत्यादि। मूल पालि में भगवान बुद्ध की देशनाओं में जो शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह है अरिय, जिसे संस्कृत में आर्य भाषान्तर किया गया है। महामंगल सुत्त में शब्द आया है- अरिय सच्चानि अर्थात आर्य सत्य।आधुनिक इतिहास में यह शब्द नस्लीय अर्थों में प्रयोग किया जाता है। इतिहासकार कहते हैं कि आर्य एक नस्ल है जो भारत में बाहर से आयी। भगवान बुद्ध ने अरिय अथवा आर्य शब्द का जो उपयोग किया है वह नस्लीय अर्थ में नहीं है। पालि में अरिय का अर्थ होता है श्रेष्ठ, अटल, त्रैकालिक सत्य, सुन्दरतम्। जो कुछ भी सुन्दरतम् है, श्रेष्ठतम है उसे भगवान ने अरिय अथवा आर्य कहा है। निर्वाण को उपलब्ध होने का श्रेष्ठतम मार्ग है अष्टांग मार्ग, इसलिये भगवान ने उसे उपसर्ग देकर कहा है, आर्य आष्टांगिक मार्ग। दु:ख, दुःख का कारण, दु:ख का निदान और निदान का उपाय व सम्बोधि की उपलब्धि- इन चार क्रमिक अंगों के साक्षात्कार को भगवान ने श्रेष्ठतम सत्य कहा है, इसीलिए इन चार अंगों को उन्होंने चार आर्य सत्य कहा है। आधुनिक इतिहासकार इस दिशा में भी गहन शोध कर रहे हैं और स्थापना दे रहे हैं कि अरिय अथवा आर्य शब्द की अर्थश्रेष्ठता व लोकप्रियता देख कर इसे उस समुदाय ने आत्मसात कर लिया जिसे आज आर्य परिभाषित किया जा रहा है।
बुद्ध के काल में ऐसे साक्ष्य भी मिलते हैं कि कम्बोज से व्यापारी भारत आते थे, बुद्ध से मिलते भी थे। कम्बोज ही आधुनिक ईरान है, जो कि आर्यान का अपभ्रंश है, जिसे आर्यों का मूल स्थल माना जाता है। इस प्रकार यह कहना उचित नहीं होगा कि आर्य भारत के बाहर से आये, बल्कि कहना उचित यह होगा कि वह समुदाय जो भारत के बाहर ले आया उसने बुद्ध के अरिय अथवा आर्य शब्द को स्वयं के सम्बोधन के लिये आत्मसात कर लिया। यह उनका उस काल में बुद्ध के प्रति अनुराग भी दर्शाता है। इसी आलोक में दो और शब्द भी देखे जाने चाहिये- पण्डित और ब्राह्मण। पालि ग्रंथों में भगवान बुद्ध की देशनाओं में इन दोनों शब्दों का बहुधा प्रयोग हुआ है। महामंगल सुत्त में ‘पण्डित’ और पराभव सुत्त में ‘ब्राह्मण’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। इन शब्दों का प्रयोग जब बुद्ध करते हैं तो उनका अर्थ जातिवाचक नहीं होता, बल्कि गुणवाचक होता है। बुद्ध ने अपने समय में प्रचलित कई परम्पराओं व शब्दों को पुनर्परिभाषित भी किया है। जैसे, छः दिशाओं को पूजने की परम्परा को उन्होंने नया अर्थ दिया- सिगालोवाद सुत्त में। ब्रह्म शब्द को मैत्री, करूणा, मुदिता, उपेक्खा से संयुक्त कर ब्रह्म विहार के रूप में व्याख्यायित किया।
कदाचित ‘पण्डित’ और ‘ब्राह्मण’ शब्दों को लेकर बौद्ध दृष्टिकोण से सुस्पष्टता बनी रहे इसीलिये धम्मपद में ‘पण्डित वग्ग’ और ‘ब्राह्मण वग्ग’ भी हैं। धम्मपद की गाथाएँ कहती हैं- कण्हं धम्मं विप्पहाय सुक्कं भावेथ पण्डितो- पाप कर्मको छोड़ कर पण्डित शुभ कर्म करे। परियोदपेय्य अत्तानं चित्तक्लेसेहि पण्डितो- पण्डित अपने चित्त के मैल को दूर करें। यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्थि दूक्कतं, संवुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं- जिससे काया, वाचा, मनसा कोई पाप नहीं होता, जो इन तीनों स्थानों से संयत है , उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। पण्डित और ब्राह्मण शब्द इन्हीं बौद्ध अर्थों में देखे जाने चाहिये। सन्दर्भ के लिए धम्मपद देखें।
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