अमेरिका की तस्वीरें अखबारों और सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया ने देखी हैं। निजी तौर पर अमेरिका और उसका कथित जनतंत्र अपन जैसे लोगों की कभी पसंद नहीं रहे। पर भारत से तुलना करते हैं तो अमेरिकी समाज वाकई तरक्की-पसंद नजर आता है। उस समाज के दामन पर रंगभेद के दाग़ अब भी हैं पर शायद उनका रंगभेद हमारी ब्राह्मणवादी-वर्णव्यवस्था के सामने अब कहीं नहीं ठहरता।
रंगभेद के खिलाफ वहां सदियों की लड़ाइयों का इतिहास है। पर भारत में अगर दक्षिण के केरल और तमिलनाडु आदि जैसे कुछ इलाकों को छोड़ दें तो वर्ण व्यवस्था और सवर्ण-सामंती वर्चस्व के विरुद्ध समाज-सुधार की लड़ाइयां देश के बड़े हिस्से में नहीं लड़ी जा सकीं और इस तरह भारत संवैधानिक रूप से ‘जनतंत्र’ लागू करने के ऐलान के बावजूद एक समावेशी और जनतांत्रिक समाज में तब्दील नहीं हो सका।
अन्याय, गैर-बराबरी और उत्पीड़न के डरावने उदाहरणों के बावजूद अमेरिकी समाज में भारत जैसी नफ़रती हिंसा, वर्ण-वर्चस्व से प्रेरित सामूहिक जनसंहार, आगजनी और सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएं या उन पर शासन की बेफिक्री या कई मामलों में उत्पीड़कों के लिए शासकीय-संरक्षण जैसे हालात नहीं नज़र आते। ऐसा वहां कल्पना के बाहर है। पर लंबी लड़ाइयों और शासन के सकारात्मक कदमों के बावजूद रंगभेद के वायरस वहां पूरी तरह ख़त्म नहीं हुए। हाल ही में एक पुलिसकर्मी द्वारा वहां के एक अफ्रीकी-अमेरिकन नागरिक जार्ज फ्लायड की नृशंस हत्या इसका ठोस उदाहरण है। अतीत में भी दमन-उत्पीड़न के ऐसे अनेक मामले समय-समय पर दर्ज़ होते रहे हैं। इन सब पर अमेरिकी समाज और शासन में हमेशा हलचल भी हुई। प्रतिरोध की संगठित आवाजें भी उठी हैं।
आज अमेरिका में अनेक जगहों पर कोरोना के ख़तरे और तमाम शासकीय पाबंदियों की परवाह किए बगैर जार्ज फ्लायड जैसे एक मामूली व्यक्ति की हत्या पर लोग आंदोलित हैं। अश्वेत और श्वेत सभी इस प्रतिरोध का हिस्सा हैं।
जार्ज फ्लायड एक निजी सुरक्षाकर्मी की नौकरी करते थे। अमेरिका के मिनेसोटा प्रदेश के मिनेपोलिस की पुलिस टीम ने उन पर महज संदेह के आधार पर हमला कर दिया। डेरेक शौविन सहित उन चार पुलिसकर्मियों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है और आगे की कार्रवाई के लिए जांच जारी है। जनता सड़कों पर उतर आई है। हवाइट हाउस के सामने भी प्रदर्शन जारी हैं। इन प्रदर्शनों में श्वेतों की भी उपस्थिति रही है। जहां श्वेत आबादी की ज्यादा हिस्सेदारी नहीं है, वहां भी श्वेतों के एक उल्लेखनीय हिस्से में उक्त घटना के प्रति तीव्र निन्दा का भाव है। बस, चिंता की एक ही बात है, ये विरोध कई जगह हिंसक और विद्रूप होते नजर आ रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि इसका फायदा वहां के निहित-स्वार्थी तत्वों के हिस्से में जा सकता है।
ये तो मानना पड़ेगा, अमेरिकी समाज की और जो भी खामियां हों, वह भारत के सड़े हुए मनुवादी-वर्चस्व के वर्णवादी समाज से बिल्कुल अलग हैं। यहां तो पढ़े-लिखे बौद्धिक मिज़ाज वाले सवर्णों का बड़ा हिस्सा आज भी उत्पीड़ित समाज के लोगों के जुल्मों-सितम के विरुद्ध नहीं खड़ा होता। सकारात्मक कार्रवाई के बेहद साधारण संवैधानिक कदम भी उसे नागवार गुजरते हैं।
वह खुलेआम उसे ‘मेरिट’ के विरुद्ध बताता है। लेकिन मूल संवैधानिक प्रावधानों के बगैर उच्च वर्ण के लोगों के लिए जब नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था होती है तो वह उसका विरोध करने की बात तो दूर रही, उसे जरूरी बताने में भी शर्म महसूस नहीं करता। इस बात पर भी उसे शर्म नहीं आती कि नौकरशाही, मीडिया और न्यायपालिका के शीर्ष पदों पर ही नहीं, विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर प्रोफेसरों तक की सूची में भी सिर्फ कुछ ही वर्णों के लोग पदासीन नज़र आते हैं।
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई किताबें भी उन्होंने लिखी हैं।)