वैशाख की पूर्णिमा की रात को सिद्धार्थ गौतम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये। अब वह सिद्धार्थ न रहे। उन्होंने स्वयं घोषणा की कि अब वे बुद्ध हैं।इस सम्बन्ध में विनय पिटक में एक बहुत ही प्रमाणिक और रोचक संवाद है। बुद्धत्व उपलब्धि के बाद जब तथागत बोधगया से सारनाथ के लिए चले तो रास्ते में उन्हें उपक नामक एक परिव्राजक मिला। बुद्ध के तेजस्वी रूप को देख कर वह हैरान रह गया! प्रथम दृष्टया उसे लगा ही नहीं कि इतना तेजस्वी कोई मानव हो सकता है! बड़े विस्मय से उसने बुद्ध से पूछा:”विप्पसन्नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो। कं सि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो? को वा ते सत्था? कस्स वा त्वं धम्म रोचेसी” ति?”- “आयुष्मन्! तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रसन्न एवं उदार लग रही हैं! तुम्हारे शरीर की कान्ति भी परिशुद्ध तथा उज्ज्वल है! तुम किसके द्वारा किस उद्देश्य से प्रव्रजित हुए हो? तुम्हारा गुरु कौन है? तुम किस धम्म के अनुयायी हो? “भगवान का उत्तर सुनने जैसा है, एक-एक शब्द ध्यान देने योग्य है: “सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो। सब्बञ्जहो तण्हक्खये विमुत्तो सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं॥ न मे आचरियो अत्थि सदिसो मे न विज्जति। सदेवकस्मि लोकस्मिं नत्थि मे पटिपुग्गलो॥ अहं हि अरहा लोके अहं सत्था अनुत्तरो। एकोम्हि सम्मासम्बुद्धो सीतिभूतोस्मि निब्बुतो।।धम्मचक्कं पवत्तेतुं गच्छामि कासिनं पुरं। अन्धीभूतस्मिं लोकस्मिं आहञ्छुं अमतदुन्दुभिं”॥ ति- “मैं सबको पराजित करने वाला तथा सर्वज्ञ हूँ एवं सभी धम्मों से निर्लिप्त हूँ। मैं सर्वत्यागी होकर अपनी भवतृष्णाओं को क्षीण कर डालने के कारण विमुक्त हो चुका हूँ। स्वयं अभिज्ञान करके साक्षात्कार कर मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ। अतः मैं किसको अपना गुरु बताऊँ?मेरा कोई गुरु नहीं है। इस संसार में मेरे समान कोई नहीं है। देवताओं सहित इस लोक में मेरा प्रतिस्पर्धी कोई नहीं है। मैं ही लोक में अरहत हूँ। मैं ही अनुत्तर शास्ता हूँ। मैं ही एकाकी सम्यक्सम्बुद्ध हूँ। मैं ही शान्तिलब्ध निब्बान को उपलब्ध हूँ।
धम्मचक्क पवत्तन के लिए मैं काशी नगरी की तरफ जा रहा हूँ। अविद्या के अन्धकार से ग्रसित इस लोक में वहाँ अमृत ज्ञान की दुन्दुभि बजाऊँगा। यह सुनकर हैरान उपक बोला:”यथा खो त्वं, आवुसो, पटिजानासि, अरहसि अनन्तजिनो” ति!- “आयुष्मन्! तुम तो ऐसा कह रहे हो मानो तुम ही अनन्त जिन हो!”भगवान ने कहा: मादिसा वे जिना होन्ति ये पत्ता आसवक्खयं। जिता मे पापका धम्मा तस्माहमुपक जिनो”। ति॥ “हाँ, मेरे ही जैसे लोग जिन हुआ करते हैं जिनके समस्त आश्रवों का क्षय हो चुका है। उपक! मैंने अपने सभी पापमय अकुशल धम्मों को जीत लिया है, विनष्ट कर दिया है, अतः मैं ही जिन हूँ।”भगवान का कथन उपक को समझ में नहीं आया। विनय विटक में लिखा है:एवं वुत्ते उपको आजीवको “हुवेय्यावुसो” ति वत्वा, सीसं ओकम्पेत्वा, उम्मग्गं गहेत्वा पक्कामि।- भगवान् द्वारा यह उत्तर दिये जाने पर, वह उपक आजीवक “होगे तुम वैसे, आयुष्मन्!” यह कहकर, उपेक्षापूर्वक सिर को हिलाते हुए पुनः अपने रास्ते पर चल दिया। यह संवाद बड़ा अनौपचारिक है।
परिव्राजक की आयु का उल्लेख नहीं है लेकिन उस समय भगवान की आयु मात्र पैतीस वर्ष थी। भगवान ने उन्तीस वर्ष की आयु में गृहत्याग किया था और छ: वर्षों के कठोर तप के बाद वे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये थे। इस विवरण से वे उस समय पैतीस वर्ष के थे- यौवन के शिखर पर, बुद्धत्व के तेज से दमकते हुए!यदि उपक बुद्ध के कथन को समझ पाता तो बौद्ध इतिहास में भगवान का प्रथम उपदेश पाने वाले पंचवग्गीय भिक्खुगण नहीं कदाचित उपक वह पहला व्यक्ति होता!बुद्ध की घोषणा सुनने जैसी है:अहं हि अरहा लोके- मैं ही लोक में अरहत हूँ।बुद्ध अरहत हैं।
चार्ल्स डार्विन का विकासवाद, थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन, है कि मनुष्य बन्दर का विकसित रूप है। दरअसल डार्विन का सिद्धान्त विकासवाद है ही नहीं, वरन अवविकासवाद, थ्योरी ऑफ डिवोल्यूशन है। डार्विन के सिद्धान्त से तो मनुष्य पूछविहीन बन्दर ही है। विकासवाद तो सच में बुद्ध का है जो स्रोतापन्न से अरहत तक के सोपान का विज्ञान है।बुद्ध के विकासवाद का सिद्धान्त, थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन, है कि मनुष्य विकसित होता है तो, १. स्रोतापत्ति के मार्ग पर लगता है २. स्रोतापत्ति अवस्था को उपलब्ध होता है ३. सकतागामी के मार्ग पर लगता है ४. सकतागामी अवस्था को उपलब्ध होता है ५. अनागामी के मार्ग पर लगता है ६. अनागामी अवस्था को उपलब्ध होता है ७. अरहत के मार्ग पर लगता है ८. अरहत अवस्था को उपलब्ध होता हैसारे सोपानों को पार कर बुद्ध अरहत हैं। न केवल वे अरहत हैं बल्कि वे उस अवस्था तक पहुँचने की प्रविधि, टेक्निक, के अविष्कारक हैं, उपदेशक हैं, मार्गदर्शक हैं।वे स्पष्ट कह रहे हैं:अहं सत्था अनुत्तरो- मैं ही अनुत्तर शास्ता हूँ!अनुत्तर अर्थात जिसका कोई उत्तर न हो, कोई जवाब न हो यानी लाजवाब! उनके दिशानिर्देशन में हजारों लोग रूपान्तरित हुए, साधारण मनुष्य से अरहत अवस्था को उपलब्ध हुए।
आज भी इस धरती पर अरहत मौजूद हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान के महापरिनिर्वाण के बाद पांच सौ अरहत एकत्रित हुए और चौरासी हजार धम्म सुत्तों को यानी भगवान के उपदेशों को संकलित किया, जिसे त्रिपिटक नाम दिया गया, अरहतों की वह परिषद को पहली संगीति कहते हैं।बुद्ध मनुष्य हैं। वह कोई मिथक नहीं वरन इतिहास हैं। वह माता महामाया व शुद्धोदन के पुत्र हैं। वह प्रगट नहीं हुए हैं। वह अवतरित नहीं हुए हैं। उनका जन्म हुआ है।बुद्ध मनुष्यत्व की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं। वह मनुष्यत्व की सम्भावना का सर्वोच्च शिखर हैं। श्रेष्ठतम मनुष्य कैसा हो सकता सकता है, बुद्ध उसका एक आदर्श उदाहरण हैं। बुद्ध मनुष्य हैं। बुद्ध रागमुक्त, द्वेषमुक्त, मोहमुक्त, तृष्णामुक्त आश्रवरहित मनुष्य हैं। वे शील, समाधि, प्रज्ञा का साकार रूप हैं।”मादिसा वे जिना होन्ति ये पत्ता आसवक्खयं। जिता मे पापका धम्मा तस्माहमुपक जिनो”। ति॥
“हाँ, मेरे ही जैसे लोग जिन हुआ करते हैं जिनके समस्त आश्रवों का क्षय हो चुका है। उपक! मैंने अपने सभी पापमय अकुशल धम्मों को जीत लिया है, विनष्ट कर दिया है, अतः मैं ही जिन हूँ।”बुद्ध अनन्त मैत्री, अनन्त करूणा, अनन्त मुदिता, अनन्त उपेक्खा, अनन्त प्रज्ञा का साकार रूप हैं। वह हिंसा से मुक्त हैं, क्रोध से मुक्त हैं, वासना से मुक्त हैं। वह समस्त आश्रवों से मुक्त हैं। वह मनसा, वाचा, कर्मणा सभी अंगों से शीलवान हैं। वह सम्यक समाधि को उपलब्ध हैं। वे उच्चतम प्रज्ञा की अभिव्यक्ति हैं। मगर बुद्ध मनुष्य हैं। बुद्ध इतने शुद्ध हैं कि उनकी शुद्धता को देख कर हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं, सिर अपने आप झुक जाता है, मगर फिर भी बुद्ध पूजनीय से अधिक अनुकरणीय हैं, श्रद्धेय से अधिक अनुपालनीय हैं। बुद्ध अवतार नहीं हैं। बुद्ध मनुष्य हैं।बुद्ध को अवतार मान लेने से मनुष्यता का अहित है। जिन लोगों ने बुद्ध को अवतार के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया उन लोगों ने जाने-अनजाने में मनुष्यता का अहित किया गया है। यदि ऐसा श्रद्धावश किया है तो भी अनजाने में मनुष्यता का अहित किया है और यदि ऐसा साजिशन किया है तो भी मनुष्यता का अहित ही नहीं किया है, बल्कि एक अपराध भी किया है।
हजरत मुहम्मद के बाद अब कोई पैगम्बर नहीं हो सकता क्योंकि वह आखिरी पैगम्बर हैं, जीसस के बाद कोई क्राइस्ट नहीं हो सकता क्योकि वह सन ऑफ गाॅड है, ईश पुत्र हैं, कृष्ण अथवा राम के बाद कोई उनके जैसा हो नहीं सकता क्योंकि वह अवतारी हैं, लेकिन बुद्ध के जैसा हर व्यक्ति हो सकता है- शीलवान, समाधि सम्पन्न, प्रज्ञावान, अन्तत: आस्रवमुक्त अरहत। बुद्ध मानवकता की सुन्दरतम सम्भावना हैं।बुद्ध को अवतार मान लेना मानवीय विकास, इवोल्यूशन की सम्भावनाओं पर विराम लगाना है। अवतार मान लेने का अर्थ है कि दूसरा मनुष्य बुद्ध के जैसा हो नहीं सकता, क्योंकि बुद्ध अवतारी हैं! लेकिन बुद्ध अपने प्रयासों से मानव विकास की चरम अवस्था को उपलब्ध अरहत हैं।
बुद्ध को अवतारी मान लेने से मानव विकास की सम्भावनाओं पर विराम लग जाता है, क्योंकि मनुष्य अवतारी हो नहीं सकता। बुद्ध मनुष्य हैं तो मनुष्य के विकास की सम्भावना जिन्दा है। अरहत न भी सही तो भी बुद्ध शीलवान मानव का आदर्श हैं, शान्ति, सौहार्द्य, समाधि की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं, प्रज्ञा की पराकाष्ठा हैं।जब हम बुद्ध को नमन करते हैं:”नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स”तो वास्तव में अपने में अन्तर्निहित श्रेष्ठतम सम्भावनाओं का भी आह्वान कर रहे होते हैं, अपने अन्दर के उच्चतम सौन्दर्य को भी पुकार रहे होते हैं।तिब्बत के महान गुरू फबोंखा रिनपोचे की एक मार्मिक कविता है:यदि आप निष्ठापूर्वक साधना करें, चाहे एक उपासक बने रहें, आपको प्रज्ञालाभ हो सकता हैजैसे मारपा और मिलारेपा तथा अन्य कई भारतीय और तिब्बती राजाओं व आमात्यों को हुआ था यदि आप साधना नहीं करते हैं तो चाहे आप दीर्घकाल तक पहाड़ों में रहें, आप उस घोंघे की भाँति रहेंगे, जो महीनों तक पहाड़ों के तल पर सर्दियाँ बिताता है!
-राजेश चन्द्रा-