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सज्जनों का संग करे, दुर्जनों से रहे दूर ।

तीन सुख के इच्छुक सज्जनों के संग करे। कौन तीन सुख ?

१. प्रशंसा

२. धनलाभ

३. मरणानन्तर सुगति ।

जो पुरुष स्वयं पाप नहीं करता, परन्तु पापकर्ता पुरुष का संग करता है, उस के लिये पाप में लिप्त होने की शंका बनी रहती है तथा लोक में उसका अपयश होने लगता है।

जैसा मित्र बनाया जाता है, जैसे पुरुष का संग किया जाता है, वह संग करने वाला भी वैसा ही हो जाता है। क्योंकि, उसका सहवास ( साथ रहना ) वैसा ही है ।

साथ रहने वाला पुरुष जैसे पुरुष के साथ रहता है, उसके गुण – दोष उसमें भी आ जाते हैं । जैसे विष से लिप्त वाण जिस तूणीर ( तरकस ) में रहेगा वह अन्य वाणों को भी विषलिप्त कर देगा । इस उपलेप के भय से पापमित्र का संग नहीं करना चाहिये। जो पुरुष जिस कुशा के अग्रभाग से दुर्गन्धमय मछली को उठाता है तो उस मछली को दुर्गन्ध से वह कुशाग्रभाग भी दुर्गन्धयुक्त हो जाता है ।

मूखों की संगति का फल भी ऐसा ही होता है । ( इसके विपरीत ) कोई पुरुष तगर को जिस पत्ते में बांध कर लाता है , वह पत्ता भी तगर की गन्ध से सुवासित हो जाता है ।

ऐसा ही बुद्धिमानों को संगति का फल होता है। अत: उस पत्रपुटक ( जिसमें तगर रखकर लाया गया था ) के समान अपना परिणाम जानकर बुद्धिमान पुरुष दुष्टों का संग न करे ; अपितु सज्जनों का हो संग करे । क्योंकि यह निश्चित हो चुका है कि – पापी पुरुष,अन्त में, अधोगति को प्राप्त करता हैं और पुण्यकर्मा पुरुषों की सद्गति ही होती है ।”

 नमो बुद्धाय

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