तथागत बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति (ई. पूर्व ५८८) से लेकर महापरिनिर्वाण पर्यन्त (ई. पूर्व ५४३) जो कुछ उपदेश किए, सब मौखिक ही। उन्होंने किसी ग्रन्थ का न तो प्रणयन किया और न ग्रन्थ रूप में किसी उपदेश विशेष को दिया। उन्होंने समय-समय पर जो कुछ उपदेश दिए,उसे उनके शिष्य कंठाग्र करते आए और उनके महापरिनिर्वाण के ही वर्ष में, एक मास के ही उपरान्त राजगृह कि सप्तपर्णी नामक गुहा में ५०० भिक्षुओ ने प्रथम संगीति का आयोजन किया। उस संगीति में तथागत बुद्ध के सम्पूर्ण उपदेशों का संकलन किया गया और पठन-पाठन की सुविधा के लिए उन्हें तीन पिटकों में बाँट दिया गया जिसे ‘तिपिटक’ (=त्रिपिटक) कहते हैं। तिपिटक ही बौद्ध धम्म कि प्राचीनतम मूलधारा है। इसके ये तीन पिटक इस प्रकार है: १. सुत्त पिटक 2. विनय पिटक 3. अभिधम्म पिटक।
तथागत बुद्ध सभी महान गुणों की प्रतिमूर्ति हैं। उनमें नैतिकता (शील) की उत्कृष्ठता थी, प्रगाढ़ एकाग्रता (समाधि) एवं प्रखर विवेक (प्रज्ञा आदि) की, मानवीय इतिहास की श्रेष्ठ व अनुपम विशेषतायें थी। बुद्ध के प्रवचनों से संबन्धित पवित्र पुस्तकों में उनकी इन विशेषताओं का वर्णन है। ‘पाली’ भाषा में उल्लिखित बुद्ध के नौं श्रेष्ठ गुणों का उच्चारण एवं मनन संसार के सभी बौद्ध अपनी दैनिक शांति प्रिय वंदना उपासना के अभ्यास में करते हैं। किन्तु बुद्ध विविध गुण सम्पन्न हैं, परंतु इस संदर्भ यहाँ मात्र नौ ही विशेषताओं को वर्णित किया गया है। यह कहना विसंगत न होगा की बौद्ध धम्म के कुछेक अन्य विचारकों एवं अनुयाइयों ने, बुद्ध से हटकर कुछ अति-गुणों को भी बुद्ध के गुणों में जोड़ दिया था।
फिर भी लोगों ने किसी भी ढंग का उपयोग करके बुद्ध को प्रस्तुत किया हो, यह तथ्य है कि समय-समय पर जो भी ऐतिहासिक बुद्ध स्वरूप प्रकट हुए, वे उनके समकक्ष गुणों से तथ उनके समान ही ज्ञान से भी सम्पन्न थे। अत: किसी भी बुद्ध का सत्कार करते हुये कोई भेद-भाव नहीं होना चाहिए, भले ही तथागत बुद्ध ही वास्तविक बुद्ध क्यों न हो। सारांश में यही कहा जा सकता है की इसमे कोई तर्क-वितर्क नहीं करना चाहिए कि कौन से बुद्ध अधिक शक्ति सम्पन्न या दूसरों से अधिक महान है। पाली भाषा में लिखित नीचे वर्णित किये गए वे सूत्र हैं,जो तथागत बुद्ध के नौ गुणों से संबन्धित हैं और जिनको उनके उपासक गण उनकी वन्दना करते समय उच्चारण एवं स्मरण करते हैं।
“इतिपी सो भगवा अरह, सम्मा सम्बूद्धों, विज्जचरण संपन्नों, सुगतों, लोकविद, अनुत्तरों पूरिसधम्म सारथी, सत्था देव मनुस्सान बुद्धों भगवति”
उक्त सूत्र की अधिकृतता पर कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता क्योंकि इसे त्रिपिटक के अति महत्वपूर्ण मौलिक पाठों के साथ-साथ बौद्धों की, बुद्ध की चालीस ‘कम्मठान भावना’ की‘बुद्धानुस्तुति’ अर्थात बुद्ध के गुणों की स्तुति के आधार पर लिया गया है। ‘पाली’ भाषा की इस स्तुति का सारांश भावार्थ इस प्रकार है: ‘पूर्व के बुद्धों के भाँति यह भगवान बुद्ध भी सबके पूज्य, सर्व श्रेष्ठ ज्ञान के दाता, सभी ज्ञान व आचरणों से युक्त, सुंदर गति वाले लोकान्तर के रहस्य को जानने वाले सर्व श्रेष्ठ महापुरुष हैं। अव्दितीय सारथी की भाँति राग द्वेष और मोह में फँसे हुए मानव को ठीक मार्ग पर लगाने वाले देवताओं और मनुष्यों के शिक्षक स्वयं बोध स्वरूप और दूसरों को बोध कराने वाले सभी एश्वर्यों से युक्त तथा सभी क्लेशों से मुक्त हैं।’
सामन्यत: पुकारे जाने वाले, यही बुद्ध के नौं सर्वोत्तम गुण हैं। इन गुणों की संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।
1॰ अरहं:
तथागत बुद्ध पाँच दृष्टिकोण से अरहत दर्शाए जाते हैं। (क) उन्होंने सभी अपवित्रताओं को निकाल फेंका है। (ख) उन्होंने अपवित्रताओं के उन्मूलन (शमन) में बाधक सभी शत्रुओ का दमन कर दिया है। (ग) उन्होंने भवचक्र की सभी बाधाओं का दमन कर दिया। (घ) वे दान प्राप्त करने तथा सम्मान पाने के सुपात्र है। (ड) उन्होने अपने आचरण व अपनी शिक्षाओं में किसी बात को रहस्यमयी ढंग से दबा-छुपाकर नहीं रखा। बुद्ध मानव इतिहास में सर्वोच्च महामानव थे। उनका जीवन परिपूर्ण एवं विश्वसनीय था। उन्होंने बोधिवृक्ष की छाया में ध्यान साधना में बैठकर सभी बुराइयों पर विजय प्राप्त की और मानसिक संतुलनता की श्रेष्ठम ऊंचाई तक पहुंचे। निर्वाण पद पाकर उन्होंने सभी आपदाओं का अन्त कर दिया था। वे सभी प्रकार से महाश्रद्धा के पत्र थे और समस्त विश्व ने उनको आदर दिया। उनका जीवन दोषरहित व निष्कलंक था। उनकी शिक्षाओं में कोई गूढ़ता या गोपनीयता नहीं होती है। उनके उपदेश सभी के लिये खुली किताब की भांति थे। आओं और निरीक्षण करो।
2. सम्मासम्बुद्धों:
बुद्ध को सम्यकसम्बुद्ध की संज्ञा दी गई क्योंकि उन्होंने संसार के अस्तित्व को इसके सही परिप्रेक्ष्य में समझ लिया था तथा स्वयं की बोधिगम्यता से उन्होंने “आर्यों सत्यों” की खोज की। बुद्ध- जो बोधिसत्व के रूप में जन्में थे उन्होंने गृहत्याग किया और निरन्तर छह वर्षों के लम्बे समय तक ज्ञान प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या की। इस अवधि में उन्होंने उस समय के ख्याति प्राप्त गुरुओं (शिक्षकों) से संपर्क बनाया और जितना वे जानते थे उनकी सभी विधियों को परखा। सर्वोच्च ज्ञान प्राप्ति करके यहाँ तक की अपने शिक्षकों के समान ज्ञानार्जन के बाद भी वे दुर्ग्राह्य (संतोषजनक) उत्तर न पा सके, जिसकी वे खोज कर रहे थे। अंतत: विवेकपूर्ण सोच व माध्यम मार्ग पर आधारित, अपनी खोज से, इस प्रकार परंपरागत कहावतों वाले धार्मिक विश्वासों से हटकर, उन्होंने असंतोषजन्यता, संघर्ष तथा निराशा (दु:ख) जैसी सांसरिक समस्याओं का अन्तिम समाधान खोज ही निकाला। इस प्रकार महाप्रबोधन सम्पन्न होकर उन्होंने कार्य-कारण के सिधान्त की खोज की जिसके आधार पर उन्होने संसार की सत्यता का मूल्यांकन किया।
3. विज्जाचरणसम्पन्नो:
इस शब्दावली का अर्थ है बुद्ध पूर्ण स्पष्ट दृष्टि एवं उदाहरणात्मक उत्तम सदाचरण से सम्पन्न थे। इसके दो सार्थक पहलू है, जैसा की त्रिरत्न ज्ञान व अष्ठांगिक मार्ग में दर्शाया गया है। त्रिरत्न ज्ञान निम्न प्रकार है। (क) बुद्ध अपनी विगत स्मृतियों के सहारे अपने तथा दूसरों के पूर्व काल के अस्तित्व को दृष्टिगत कर सकते थे। (ख) दूसरे अतीत की स्मृतियों को जानने में सक्षम होने के कारण उनमें उत्कृष्ट दूरदर्शिता एवं क्षण भर में समस्त संसार की घटनों से स्व-दृष्टा होने की भी क्षमता थी। (ग) तीसरे- उनमें अरहत्व पद से संबन्धित गहरा ज्ञान था।
अष्टांगिक ज्ञान के आधार पर बुद्ध की नीचे दर्शायी गयी विशेषताएँ थी।– आत्मबोध की अदभुत देन। असाधारण साहसिक कार्य करने की शक्ति की अदभूत देन। बड़े-बड़े कान। दूसरों के भाव जानने की शक्ति। अनेकों शारीरिक शक्तियों। अतीत की स्मृतियों जानने के योग्यता। बड़ी-बड़ी देव स्वरूप आँखें। परम पवन जीवन जीने का श्रेष्ठ ज्ञान।
जहाँ तक करुणा या स्वच्छ आचरण शब्द का सम्बंध है, इस दृष्टिकोण से बुद्ध में समाहित सम्पूर्ण विभिन्न गुणों को 15 भागों में विभक्त किया जा सकता है जिनका वर्गीकरण इस प्रकार है। (1) कर्म (अकुशल कर्म) एवं वाणी पर नियन्त्रण (2) वेदनाओं के प्रभाव पर नियन्त्रण। (3) भोजन ग्रहण में संतुलन व सादगी। (4) अति निद्रा (आलस्य) से बचना। (5) आत्मविश्वास को सुदृढ़ बनाए रखना। (6) अकुशल (बुरें) कर्म करने में लज्जा महसूस करना। (7) अकुशल कर्म करने में भय महसूस करना। (8) ज्ञानार्जन के जिज्ञासु बने रहना। (9) शारीरिक शक्ति (स्वस्थ जीवन) सम्पन्न रहना। (10) सचेत व जागरूक रहना। (11) भौतिक क्षेत्र की चारों प्रवृतिओ (चार आर्य सत्य) की जानकारी रखना। (12) प्रज्ञा व करुणा, विवेक (जागरूकता) व अनुकम्पा के रूप में प्रकट है, वे बुद्ध के आधारभूत गुण है। (13) प्रज्ञा संपन्नता से उनमें विवेक जागृत हुआ जबकि करुणा भाव ने उनको दया भाव प्रदान किया। जिससे सभी प्राणिओ के प्रति उनमें सेवा भाव जागृत हुआ। (14) बुद्ध अपने विवेक के माध्यम से जान लेते है की मानव हित में क्या अच्छा है और क्या अच्छा नहीं है तथा अपनी अनुकम्पा से वे अपने अनुयाइयों को बुराइयों व आपदाओं से अलग रखते है। (15) महान गुणों ने ही बुद्ध को इस योग्य बनाया कि वे सभी प्राणियों के दु:खों को देख सकें और भ्रातत्व भाव कि उच्च भावना जागृत कर मैत्री भाव प्रसारक के रूप में सर्वश्रेष्ठ मानवीय गुणों से सम्पन्न हुए।
4. सुगतो:
बुद्ध को सुगतो भी कहा गया है जिसका अर्थ है कि उनका दर्शाया मार्ग अच्छा है,उद्देश्य उत्कृष्ट है और अपना मार्ग प्रशस्त करने में उन्होंने जिन शब्दों व विधियों का प्रयोग किया है वे हानिरहित व निष्कलंक है। परमानंद प्राप्ति का बुद्ध द्वारा बताया मार्ग सही है,पवित्र है, घुमावदार न होकर, सीधा तथा निश्चित है। उनकी तो वाणी ही उत्कृष्ट व भ्रमरहित है। संसार के अनेक ख्याति प्राप्त इतिहासकारों तथा वैज्ञानिकों का कथन है कि “तथागत बुद्ध कि शिक्षाएं ही एकमात्र ऐसी शिक्षाएं है जो विज्ञान एवं स्वतंत्र चिन्तकों कि चुनौती से बची रही।”
5. लोकविदु:
लोकविदु शब्द, बुद्ध के लिए उपयोग किया गया क्योंकि वे संसार के समस्त उत्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न है। महाप्रज्ञामयी बुद्ध ने स्वयं की अनुभूति से जाना (ज्ञान प्राप्त किया) तथा अपनी खोज को सांसरिक जीवन के हर पहलू भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता पर भी प्रयोग किया। वे पहले मानव थे जिन्होंने यह अवलोकन किया कि संसार के लोगों कि विभिन्न हजारों जीवन शैलियाँ थी। वे ही प्रथम पुरुष थे जिन्होने घोषणा कि थी की संसार एक अवधारणा से अलग कुछ भी नहीं है। उनके मतानुसार संसार का कोई अमुक बिन्दु नहीं है। सृष्टि कि उत्पत्ति एवं अन्त के विषय मात्र अनुमान पर आधारित हैं। उनक मानना था कि संसार की उत्पत्ति,इसका अवसान तथा इसके अन्त के मार्ग मानव के विशालकाय शरीर में ही पाया जा सकता है- जिसका सम्बंध उसके ज्ञान व चैतन्यता से बहुत गहरा है।
6. अनुत्तरोपुरिसधम्मसारथी:
अनुत्तरों का अर्थ है अनूठा व अद्वितीय पुरुष, उस व्यक्ति के लिए उपयुक्त किया गया है जो धम्म की देन से सम्पन्न (धर्म धरण किए) है। जबकि सारथी का अर्थ पथप्रदर्शक से है। इन तीनों शब्दों को एक साथ ही एक ही व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाना बताता है कि एक ऐसा अनोखा व्यक्तित्व अथवा नेतृत्व जो मनुष्य को सही दिशा में लें जाने में सक्षम हो। बुद्ध के धर्म की ओर आकर्षित होकर और बुराइयों का शमन करके जो लोग धम्म के अनुयायी बने थे उनमें जघन्य हत्यारे जैसे कि अंगुलिमाल, आलवक, तथा नालागिरी, सैंकड़ों लुटेरों, नरभक्षी,तथा सकक जैसे उदण्ड व्यक्ति भी थे। उन सभी को धर्म भावना से जोड़ा गया और ऐसा बताया गया कि उनमें से कुछ ने तो अपने धार्मिक जीवन मे ही आदर्श उच्च भिक्षु पद पा लिया था। देवदत्त, जो बुद्ध का घोर विरोधी था, उन्होने उसे भी अपने संघ में प्रवेश दिलाया था।
7. सत्था देवमनुसान्न:
इस शब्द का भावार्थ यह है कि बुद्ध, देवता, (जागृत पुरुष) व मनुष्यों के शिक्षक थे। इस परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेखनीय है कि देवता उन लोगों को कहा जाता है जो अपने ही कुशल कार्यों से मनुष्य के स्तर से ऊपर जा चुके होते है, क्योंकि बुद्ध के अनुसार मात्र जैविक शारीरिक विकास ही मनुष्य के सर्वांगीण विकास की अवस्था नहीं है। बौद्ध धम्म के परिप्रेक्ष्य में, देवता का पौराणिक सैद्धांतिक मान्यताओं से कोई सम्बंध नहीं है। बुद्ध एक विलक्षण गुरु (शिक्षक) थे, जो बहुत ही उदार थे और अपनी शिक्षा को प्रचारित करने हेतु मनुष्यों के मानसिक स्तर, चरित्रबल, तथा लोगों कि भिन्न-भिन्न मानसिकता को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न विधियों का उपयोग करने में सक्षम थे। वे लोगों को विशुद्ध जीवन जीने के शिक्षा देने में प्रयासरत रहा करते थे। बुद्ध वास्तव में सार्वभौमिक जगत गुरु थे।
8. बुद्धों:
बुद्ध का अर्थ विशेष उपनाम – “बुद्धों” इस वर्ग के द्वितीय भाग की पुनरावृति प्रतीत होगी यद्यपी इस शब्द के अपने सार्थक गुण एवं निर्देश (संकेत) है। ‘बुद्धों’ का तात्पर्य उस गुरु से है जो सर्वज्ञता के गुण सम्पन्न होने के कारण दूसरों को अपनी खोज से अवगत कराने की असाधारण शक्ति रखता है उनकी समझने की विधियाँ इतनी उत्तम थी की अन्य कोई भी गुरु उनसे आगे नहीं जा सका। ‘बुद्धों’ शब्द का दूसरा अर्थ “जागृत पुरुष’ से लिया जाता है, जबकि साधारण व्यक्ति प्राय: उदासीनता की स्थिति में रहता है। बुद्ध सबसे पहले जागृत पुरुष बने और उन्होने इस उदासीनता की अवस्था को ही बादल दिया। तदोपरान्त उन्होने उन लोगों को भी जागरूक बनाया जो अज्ञानता के कारण गहरी नींद में लम्बे समय से खोए हुए थे।
9. भगवा:
बुद्ध का परिचय कराने अथवा उन्हें प्रस्तुत करने में उपयोग की गई सभी शब्दावलियों में ‘बुद्धों’ – एवं ‘भगवा’ अलग-अलग प्रयोग किया गया अथवा इन दोनों शब्दों को एक साथ मिलाकर जैसे कि ‘बुद्धों भगवा’ प्रयोग किया गया इन सभी का अर्थ है आशीर्वाद देने वाला। यही शब्द सबसे अधिक प्रचलित है और बुद्ध के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त किए जाते है। इस प्रकार महाश्रद्धा व परम आदर के ‘बुद्ध’ नामक उपाधि के वे हकदार है। ‘भगवा’ शब्द के कई विश्लेषण कर्ताओं ने विभिन्न अर्थ सुझाए है। बुद्ध शब्द का अर्थ ‘भगवा’ अथवा आशीर्वाद देने योग्य पुरुष माना गया, जैसे कि वे समस्त मानवों मे सबसे अधिक प्रसन्न रहने वाले तथा सबसे अधिक भाग्यवान पुरुष थे क्योंकि उन्होने सभी बुराइयों पर विजय पाना जान लिया,सर्वोच्च धर्म प्रति फड़ैत किया तथ वे सर्वोच्च ज्ञान शक्ति से सम्पन्न महमानव थे।
सारांश:
प्रज्ञावान व्यक्ति के गुणो पर चिंतन करने की प्रणाली बौद्ध परंपरा में ही आचरण में लाई जाती है, विशेषत: प्रबुद्ध व्यक्ति की, यानी जो पूर्णत: प्रज्ञावान है ऐसे व्यक्ति के गुणों पर चिंतन कराने की अनुसंशा करनी चाहिए। इसे ही ‘बुद्धानुसती’ ऐसा कहा जाता है। अनुस्सती यानी स्मरण, याद और विस्तारपूर्वक कहना ही है तो मन में लाना। मन में रखना, ध्यान में रखना है। अनुस्सती ध्यान के कई संचो मे से एक ध्यान का अभ्यास है, तीन अनुस्सतियों का यह संच है, जिसमें बुद्ध, धम्म और संघ के गुणो की सूची दी गई है। उसे ही बुद्धानुस्सती,धम्मनुस्सती, और संघानुस्सती कहते है। जब हम प्रज्ञावान व्यक्ति के गुणो पर चिंतन करते है तब अनावश्यक रूप से अपनी तुलना उनके साथ करने की प्रवृति होती है। तथागत बुद्ध में निहित यह गुण सेवा साधना के विषय हो सकते हैं यदि उनके गुणों कि विभिन्न व्याख्याओं का ध्यान पूर्वक सावधानी से विश्लेषण किया जाए और उनका वास्तविक मन्तव्य व सार ग्रहण करके धारण किया जाता है। सूत्रों के पूर्ण रूप से समझे बिना उनके उच्चारक मात्र से उनका कोई प्रभाव नहीं माना जा सकता यहाँ तक कि पुजा-उपासना में भी सबसे अच्छा ढंग यही हो सकता है की सूत्रों का बार-बार स्मरण किया जाए। जब सूत्रों की व्याख्या की जा रही हो तो प्रत्येक उपासक अपना ध्यान इन पर केन्द्रित करके इनकी सच्चाई को परखें जिससे बुद्धों के अनुयायी सम्यक रूप से इन गुणों को समझने कि यथेष्ट चेष्ठा कर सके।
वजीरटाण महाथेरों की पुस्तक (Buddhist Meditation) (हिंदी में -ध्यान के कुछ लाभ) में बुद्ध के ध्यान के लिए इस प्रकार लिखा हुआ है; “जो बुद्धा नु स्सती ध्यान करता है उसके मन में बुद्ध के गुणो के संदर्भ में निरंतर विचार आते है, उच्च प्रति के आनंदी मन के कारण, अत्यानंद एवं प्रीति के कारण उनमें श्रद्धा और भक्ति इनकी बड़े मात्रा में वृद्धि होती है। उनके अंत:मन में उसे बुद्ध की अनुभूति होती है और उसे सतत ऐसा लगता है कि वह बुद्ध के संपर्क में है। बुद्ध के प्रति उसके मन में निश्चित ही करीबी की भावना निर्माण होती है। क्योंकि निरंतर बुद्धों के गुणो के साथ-साथ उसका मन एकरूप हो जाता है तथा उसे महसूस होने लगता है कि उसके भीतर निरंतर चिंतन-मनन करने वाला मन सक्रिय हो गया है। भारतीय भाष्यकार बुद्धघोष के मतानुसार जो कोई बुद्ध नु स्सती ध्यान का अभ्यास करता है- वह परिपूर्ण श्रद्धा, स्मृति, ज्ञान और पुण्य प्राप्त करता है। वह डर और चिंता इन विजय हासिल करता है और स्वयं सदैव गुरुओं के संपर्क में होने की अनुभूति प्राप्त करता है।”