देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, भारतीय विज्ञान, शिक्षा और अनुसंधान संस्थान तथा भारतीय विज्ञान संस्थान में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में कुल 8,773 आरक्षित श्रेणी के पद रिक्त हैं. लोकसभा में एम सेल्वराज के प्रश्न के लिखित उत्तर में शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान द्वारा पेश आंकड़ों से यह जानकारी मिली है.इतने बड़े पैमाने पर सरकार ने बैकलॉग क्रिएट कर दिया है. बहुजन समाज के लोगों को नियुक्तियां नहीं दी जा रही.यह इन वर्गों के साथ नाइंसाफी है. देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्वीकृत ओबीसी पद लगभग आधे से ज्यादा खाली पड़े हुए हैं। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, विश्वविद्यालयों में 55 % पद रिक्त हैं। भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर में तो ओबीसी के खाली पदों की संख्या 89 % से भी ज्यादा है।
लोकसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति श्रेणी में 2,389 पद, अनुसूचित जनजाति श्रेणी में 1,199 पद और अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में 4,251 पद रिक्त हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में अनुसूचित जाति श्रेणी में 157 पद, अनुसूचित जनजाति श्रेणी में 88 पद और अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में 231 पद रिक्त हैं. इसी प्रकार भारतीय विज्ञान, शिक्षा और अनुसंधान संस्थान में अनुसूचित जाति श्रेणी में 28 पद, अनुसूचित जनजाति श्रेणी में 11 पद और अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में 67 पद रिक्त हैं.
भारतीय विज्ञान संस्थान में अनुसूचित जाति श्रेणी में 34 पद, अनुसूचित जनजाति श्रेणी में 46 पद और अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में 272 पद रिक्त हैं.
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Image courtesy : The Telegraph
शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नियुक्तियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम 2019 अधिसूचित किया गया था. उन्होंने बताया कि इसके लागू होने के बाद सभी स्तरों पर अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण लागू किया गया है.उन्होंने कहा कि रिक्त पदों को भरने का दायित्व केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर है, जो संसद के अधिनियमों के तहत सृजित स्वायत्त संगठन हैं.
हाल ही में मोदी सरकार ने ओबीसी कैबिनेट बनाई लेकिन ये आंकड़े साबित करते हैं कि विश्वविद्यालय जैसे अहम संस्थानों में एससी-एसटी और ओबीसी समाज के स्वीकृत पद ना भरना एक सोची-समझी साज़िश है। आखिर क्यों ये बैकलॉग नहीं भरा जा रहा? सवाल उठता है कि आखिर कब तक बहुजन समाज की हकमारी होती रहेगी?
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