गतिशीलता एक ऐसा गुण है जो किसी भी धर्म को विज्ञान के नजदीक ले जाती है। विज्ञान में जैसे कोई भी सिद्धान्त स्थाई नहीं होता तथा स्थापित सिद्धान्तों में भी परिवर्तन सम्भव हो सकता है, ठीक वैसे ही गतिशील धर्म अपनी व्याख्या पद्धति को कालक्रम में परिवर्तित करता रहता है। सम्यक् सम्बुद्ध ने सारनाथ में जिस धर्मचक्र की प्रवर्तना की, परवर्ती बौद्ध दार्शनिकों ने भगवान बुद्ध के मन्तव्यों को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से समझा तथा नये प्रस्थानों की स्थापना की। तथागत बुद्ध के दार्शनिक मत को विकसित करने वाले विद्वानों को वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद और माध्यमिक इन चार प्रस्थानों में विभक्त किया गया है।
विज्ञानवाद को व्यावहारिक स्तर पर योगाचार भी कहा जाता है। योगाचार दर्शन प्रस्थान के संस्थापक बौद्ध आचार्य मैत्रेय को स्वीकार किया जाता है। आचार्य असंग ने ‘योगाचारभूमिशास्त्रम्’ नामक बेहतरीन ग्रन्थ की रचना की। जब फाह्यान भारत भ्रमण पर आए हुए थे तब इस महान ग्रन्थ को अपने साथ ले गए। अनुवाद के जनक बौद्ध आचार्य कुमारजीव ने इस ग्रन्थ का चीनी भाषा में अनुवाद किया जिसके बाद से चीन देश में योगाचार सम्प्रदाय सर्वाधिक प्रचलित हुआ। छठवी शताब्दी में ह्वेनत्सांग ने इस महान ग्रन्थ को पढ़ा और योगाचार की गहराई में उतरने के लिए वे इतने व्याकुल हुए कि तत्कालीन समय में लगभग 110 देशों को पार करते हुए, 2500 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हुए विभिन्न कठिनाईयों और संघर्षों को पार करते हुए चार साल में भारत पहुँचे तथा योगाचार के लिए प्रसिद्ध तत्कालीन नालन्दा विश्वविद्यालय से लगातार पाँच वर्ष तक इस ग्रन्थ का; योगाचार में आगम को मानने वाले आचार्य असंग एवं वसुबन्धु द्वारा लिखे गए विभिन्न ग्रन्थों तथा; युक्ति को मानने वाले दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति जैसे उद्भट् बौद्ध विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन किया।
तत्कालीन भारत के सम्राट् हर्षवर्धन ने कन्नौज में बौद्ध महोत्सव का आयोजन किया जिसमें बौद्धेतर सम्प्रदायों सहित अन्य सभी बौद्ध परम्पराओं के भिक्खुओं को शास्त्रार्थ में आचार्य ह्वेनत्सांग ने बड़ी विनम्रता से पराजित किया। विदेशी आक्रमणों से एक के बाद एक नालन्दा, विक्रमशिला, सोमपुरा इत्यादि विश्वविद्यालय ध्वस्त होते चले गए और योगाचार बौद्ध प्रस्थान चीन में विकसित होता रहा।
योगाचार का मूल सिद्धांत है – बाह्यार्थ को सर्वथा असत् मानते हुए मात्र विज्ञान को ही सत् स्वीकार करना। इसे और सरल ढंग से समझते हैं। हमारा मन हमारे अनुभवों को सृजित करता है। इसे इस तरह से समझे कि मन से बाहर संवेदना का कोई आधार नहीं है। जितने भी बाह्य पदार्थ हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं, स्पर्श कर रहे हैं, चख रहे हैं, सूंघ रहे हैं वे सब विज्ञान मात्र हैं। उनका बाह्य अस्तित्व केवल विज्ञान मात्र है। यदि अंदर यह ज्ञान नहीं होता तो बाहर कैसे प्रतीत होता। वस्तु का स्वरूप बाह्य ढंग से शून्य है और आन्तरिक ढंग से विज्ञान मात्र है। यह विज्ञान निरालम्बनवादी है, इसे किसी अवलम्बन की आवश्यकता नहीं है। लंकावतारसूत्र ग्रन्थ में कहा गया है –
चित्तं वर्तते चित्तं चित्तमेव विमुच्यते ।
चित्तं हि जायते नान्यच्चित्तमेव निरुध्यते ।।
अर्थात् चित्त की ही प्रवृत्ति होती है और चित्त की ही विमुक्ति होती है। चित्त के अतिरिक्त दूसरी वस्तु उत्पन्न नहीं होती और न ही उसका नाश होता है। चित्त को ही विज्ञान कहा जाता है जिस कारण से योगाचारियों को विज्ञानवादी कहा गया है। चित्त को ही विज्ञप्ति कहा गया है जिसके कारण इन्हें विज्ञप्तिवादी भी कहा जाता है। लंकावतार सूत्र में ही अन्यत्र कहा गया है –
दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं हि दृश्यते।
देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम्॥
अर्थात् बाह्य दृश्य जगत् विद्यमान नहीं है, चित्त एकाकार है। परन्तु वहीं विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ जाता है कभी देह के रूप में कभी भोग के रूप में। अतः चित्त की ही वास्तव में सत्ता है और जगत् उसी का परिणाम है।
योगाचारियों ने विज्ञान के आठ भेद चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान, कायविज्ञान, मनोविज्ञान, क्लिष्टविज्ञान और आलयविज्ञान माने हैं। शुरूआत के सातों विज्ञान आलयविज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं और अन्त में उसी में विलीन हो जाते हैं। यह आलयविज्ञान आत्मा जैसा प्रतीत होता है किन्तु आत्मा नहीं है तो क्या है? यही प्रश्न ह्वेनत्सांग के मन में उलझ गया और हजारों किलोमीटर की यात्रा करते हुए नालन्दा तक आ पहुँचे अपने प्रश्न का शमन करने।
डॉ. विकास सिंह Assistant Professor & Head, Department of Sanskrit at Marwari College, Darbhanga (फेसबुक से साभार)