विशाखा अपने ससुर मीगार सेठ को अपने हाथ से पका कर ताजा-गर्म भोजन स्वयं परोस कर खिला रही थी। मीगार सेठ सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन करता था। भोजन के समय ही एक भिक्खु द्वार पर आ खड़ा हुआ। विशाखा के मन में बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ के प्रति बचपन से ही अपार श्रद्धा बैठ गयी थी लेकिन वह ऐसी घर की बहू बन कर आ गयी थी जहाँ बुद्ध के प्रति, उनके धम्म के प्रति व संघ के प्रति कोई आस्था नहीं थी।
भिक्खु को द्वार पर खड़ा देख कर भी मीगार सेठ उसे अनदेखा कर भोजन करता रहा। विशाखा ने सोचा कि शायद पिता जी की भिक्खु पर नज़र नहीं पड़ी है इसलिए वह थोड़ा किनारे हट गयी ताकि ससुर जी भिक्खु को देख लें। उन्होंने देख लिया लेकिन फिर भी उसे अनदेखी कर के चुपचाप भोजन करते रहे। ससुराल में बिना ससुर की अनुमति के भिक्खु को दान देना भी ससुराल की अवमानना होती। अंततः विशाखा ने द्वार की तरफ़ मुँह करके भिक्खु से कहा- आप आगे जाइए, हमारे पिताजी बासी भोजन कर रहे हैं।
इतना सुनते ही मीगार सेठ क्रोधित हो गया। उसने भोजन की थाली सरका कर हटा दी और बहू विशाखा को घर से निकाल देने का निर्णय ले लिया। उसने पंचायत जैसी बैठक बुला ली। नाते-रिश्तेदारों, पंचों के सामने अपना निर्णय सुनाया कि यह बहू इस प्रतिष्ठित परिवार में रहने लायक नहीं है, इसने एक भिक्खु के सामने मेरा अपमान किया है। स्वयं अपने हाथ से ताजा-गर्म भोजन खिला रही थी लेकिन भिक्खु से कहा कि मेरे पिताजी बासी भोजन कर रहे हैं।
बड़े-बुजुर्गों ने विशाखा से पूछा- बेटी, क्या तुम्हारे पिता जी सही आरोप लगा रहे हैं?
विशाखा ने कहा- मेरे पिताजी कह सही रहे हैं लेकिन मेरी बात अर्थ गलत लगा रहे हैं।
मीगार सेठ ने बीच में कहा- यह एक बात नहीं है जिससे मुझे क्रोध आया है बल्कि और भी कई बातें हैं। मायके से विदाई के समय धनञ्जय सेठ ने यानी इसके पिता ने इसके कान भर के भेजा था। इसके पिता ने इसके कान में दस बातें बताईं थीं जो मैंने चुपके से सुन लिया था। मैं पर्दे के पीछे ही था जब इसका पिता इसके कान भर रहा था। इसके पिता ने कहा था: “घर की आग बाहर मत ले जाना।”, अब आप लोग बताइये कि हम घर-गृहस्थी के लोगों के लिए यह सम्भव है कि अपना चूल्हा जलाने के लिए आग मांग बैठे तो हम उसे आग नहीं देंगे? यह तो आसपास-पड़ोस में बैर पालने वाली शिक्षा है न!
बड़े-बुजुर्गों, न्यायिकों ने विशाखा से पूछा- क्या यह सच है कि तुम्हारे पिता ने तुमसे यह कहा था?
विशाखा ने धम्मबल के पूरे आत्मविश्वास से कहा- जी, मेरे पिताजी ने यह कहा था लेकिन उसका अर्थ यह नहीं है जो हमारे ससुर जी लगा रहे हैं। मेरे पिताजी के कहने का तात्पर्य यह था कि अगर अपने सास-ससुर, देवर-ननद, पति की कोई कमी दिख जाए तो उसे कभी घर के बाहर मत कहना, घर में कभी लड़ाई-झगड़ा हो जाए तो वो बात भी कभी घर के बाहर मत कहना…यह ही होगा घर की आग को बाहर ले जाना।
अपनी बहू के मुँह उसके पिता के कूट संदेश की व्याख्या सुन कर मीगार सेठ दंग रह गया!
विशाखा ने दूसरे संदेश की व्याख्या की- बाहर की आग कभी घर में मत लाना।
मेरे पिताजी के कहने का तात्पर्य यह था कि अगर तुम्हारे सास-ससुर, नदद-देवर, पति या ससुराल के किसी परिजन की कहीं बुराई हो रही हो और उसे तुम सुन लो तो उसे घर में आकर कभी मत कहना, इससे बड़ी आग नहीं है! यही पिता जी ने कहा था- बाहर की आग कभी घर में मत लाना।
जो देता है उसको देना –
पिताजी के कहने का तात्पर्य यह था कि कभी आस-पास-पड़ोस में, नाते-रिश्तेदारी में किसी को कोई वस्तु या धन उधार देना पड़ जाए तो उसे ही देना जो वापस कर दे। यह अर्थ है जो देता है उसको देने का।
जो न देता है उसको न देना –
पिताजी के कहने का तात्पर्य यह था कि कभी आस-पास-पड़ोस में, नाते-रिश्तेदारी में किसी को कोई वस्तु या धन उधार देना पड़ जाए तो उसे न देना जो वापस न करता हो। यह है जो न देता है उसको न देना।
जो देता है उसको भी और जो नहीं देता है उसको भी देना –
हमारे जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें बस देना ही कर्तव्य है, जैसे बेटी-दामाद, भांजा-भांजी, बेटा-बहू, भिक्खु, साधु, श्रमण। इन्हें इस उम्मीद में नहीं दिया जाता कि वापस लेंगे। दें-दें तो कोई बात नहीं। इसलिए पिता जी ने कहा था- जो देता है उसको भी और जो नहीं देता है उसको भी देना।
सुख से बैठना –
पिताजी के कहने का तात्पर्य यह था कि घर में जब भी बैठना तो ऐसी जगह बैठना कि सास-ससुर, बड़े-बुजुर्ग, भिक्खु-श्रमण-साधु के अचानक आ जाने पर हड़बड़ाकर उठना न पड़े। अदब से बैठना। इसे ही कहते हैं- सुख से बैठना।
सुख से खाना –
खाना तब खाना जब सास, ससुर, पति, बच्चे, बड़े, बुजुर्ग, नौकर-चाकर, पले हुए जानवर आदि सब लोग को खिला चुको। इसे कहते हैं सुख से खाना।
सुख से लेटना –
सुख से लेटना, का तात्पर्य यह है कि लेटने से पहले देख लो कि बूढ़े सास-ससुर, बड़े-बुजुर्ग खाना खा चुके हैं, कोई दवा खाना है तो वह खा चुके हैं, बच्चे सो चुके हैं, घर के दरवाजे बन्द हैं, तिजोरी बन्द है, कोई किवाड़, खिड़की खुली तो नहीं है। यह सब जांच-परख कर लेटना सुख से लेटना है।
अग्नि की परिचर्चा करना –
सास-ससुर, बड़े-बुजुर्ग, साधु, श्रमण, भिक्खु से अग्नि के जैसा बर्ताव करना। उनसे लिहाज़ की सम्यक दूरी बना कर रखना। इतना निकट न जाना कि बेअदबी हो और इतनी दूर भी न जाना कि वे बुरा मान जाएँ। जैसे खाना पकाते समय आग में हाथ भी नहीं डाल देते लेकिन इतनी दूर भी नहीं रहते कि खाना न बन सके। ऐसे बड़े, बुजुर्गों से, पति से बर्ताव करना। इसे कहते हैं अग्नि की परिचर्चा करना।
कुल देवों की पूजा करना –
माता-पिता, सास-ससुर, बड़े-बुजुर्ग, साधु, श्रमण, भिक्खु आदि को देव समझ कर पूजनीय मानना। उनकी आवश्यकताओं को तत्परता से पूरा करना। भूल के भी उनसे बदजबानी न करना, कभी उनका अपमान न करना। यही है कुल देवों की पूजा करना।
दस कूट बातों की व्याख्या सुन कर मीगार सेठ हैरान रह गया। उसे पछतावा भी हुआ कि वह अपनी बहू को गलत समझ रहा था।
उसने अब कहा- फिर मेरी बहू ने एक भिक्खु के सामने यह मिथ्या भाषण क्यों किया कि मेरे ससुर बासी भोजन कर रहे हैं?
न्यायिकों ने पूछा- बेटी, तुम इतनी बुद्धिमान हो, फिर तुमने अपने ससुर के लिए ऐसा मिथ्या भाषण क्यों किया?
विशाखा ने पूरे धम्मबल से कहा- मेरी इस बात का भी पिताजी ने सही अर्थ नहीं लगाया। मेरे पिताजी सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन करते हैं, इतने धनाड्य हैं, श्रावस्ती के नगर सेठों में गणना होती है, इतने अनुचर-परिचर हैं, इतनी यश-कीर्त है जब यह धर्म-कर्म, दान-ध्यान कुछ करते नहीं। ऐसा वैभव तो धर्म-कर्म, दान-ध्यान, पुण्य आदि से प्राप्त होता है। मैंने अनुमान लगाया कि निश्चित ही यह कोई पुराना पुण्य कर्म है जिसके फल से यह इस समय ऐसे वैभव का जीवन जी रहे हैं। इसलिए मैंने कहा कि यह बासी भोजन कर रहे हैं।
इतना सुनते ही मीगार सेठ को समझ में आ गया। वह बिल्कुल संतुष्ट हो गया। कहने लगा- यह भी मेरा कोई पुण्य कर्म ही होगा कि ऐसी धर्मज्ञ मेरी बहू हुई है। आज से मेरी बहू नहीं बल्कि ज्ञान की माता हुई। विशाखा माता के समान है।
नमो बुद्धाय