सुपरस्टार सूर्या शिवकुमार की फिल्म ‘जय भीम’ रिलीज हुई है. इस फिल्म में सूर्या ने एक वकील की भूमिका निभाई, जो गरीब, असहाय, वंचित, आदिवासी लोगों के लिए हमेशा खड़ा रहता है. सूर्या ने इस फिल्म में जो भूमिका निभाई उसकी सभी तरफ चर्चा है. सूर्या के अभिनय की सराहना की जा रही है, फिल्म में सूर्या के किरदार ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस फिल्म में सूर्या द्वारा निभाए गए वकील का किरदार असल ज़िंदगी में है। इस फिल्म की सबसे उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक यह है कि यह न्यायिक प्रक्रिया की वास्तविकता के सबसे करीब है। फिल्म में दिखाए गए कोर्ट रूम, कोर्ट क्राफ्ट और प्रक्रिया वास्तविक जीवन की न्यायिक कार्यवाही के बहुत करीब हैं।
जी हां, सूर्या का ये किरदार मद्रास हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज के. चंद्रू से प्रेरित है, जिन्होंने कई सालों तक वकील के तौर पर आदिवासियों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और उन्हें न्याय दिलवाया. जज के. चंद्रू डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की राइटिंग एंड स्पीचेस से काफी प्रभावित है. वो कहते है मुझ में जो एनर्जी है वो डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के साहित्य के कारण है. सूर्या की फिल्म ‘जय भीम’ में भी रिटायर्ड जज चंद्रू के एक केस की कहानी को लिया गया है. सूर्या ने अपने फिल्मी करियर में पहली बार वकील की भूमिका निभाई है. रिटायर्ड जस्टिस चंद्रू की भूमिका निभाने से पहले सूर्या ने उनसे मुलाकात की थी.
जस्टिस के. चंद्रू से प्रेरित होकर बनाई फिल्म
द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सूर्या ने कहा कि मैं निर्देशक ज्ञानवेल के जरिए जस्टिस के. चंद्रू से मिला था. हमें बताया गया था कि वह एक चेंज मेकर हैं. हमने उनके बारे में कई प्रेरक कहानियां सुनीं, जिनमें यह भी शामिल है कि वह मानवाधिकार मामलों के लिए कभी कोई पैसा नहीं लेते थे. रिटायर्ड जस्टिस चंद्रू की किताबें और उनके युवा दिनों के बारे में पढ़ने के बाद हमने उनके बारे में जाना. इसके बाद हम सभी ने सोचा कि उनकी कहानी दुनिया के हर कोने तक पहुंचनी चाहिए.
उन्होंने आगे कहा कि उनके जैसे लोग गुमनाम नायक हैं और हमने सोचा कि हमें उनकी कहानी साझा करनी चाहिए, ताकि युवा उनके बारे में जानें. ‘जय भीम’ के बारे में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि कम से कम हाल की तमिल फिल्मों में उच्च न्यायालय की स्थापना पहले नहीं की गई है, इसलिए, इन सभी चीजों ने मुझे उस प्रोजेक्ट के रूप में ‘जय भीम’ चुनने के लिए प्रेरित किया.
कौन हैं पूर्व जस्टिस के. चंद्रू?
दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिनकी कहानियों और साहसी कार्यों ने हमें हर क्षेत्र में प्रभावित किया है। फिल्मी सितारों, राजनेताओं, एथलीटों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को अक्सर लोगों के जीवन में प्रेरणा के स्रोत के रूप में उद्धृत किया जाता है, लेकिन न्यायपालिका से भी कोई किसी की प्रेरणा बन सकता है ये शायद ही हमने कभी सोचा हो. दक्षिण भारत में लोग रिटायर्ड जस्टिस के. चंद्रू से परीचित हैं, लेकिन जो लोग कानून से वास्ता नहीं रखते और भारत के अन्य क्षेत्रों से आते हैं, शायद उनके लिए ये नाम नया है.
वकीलों और जजों के सामाजिक कार्यों और उनकी सफलता की कहानियों पर बहुत कम बात की जाती है. शायद इसलिए ही जस्टिस चंद्रू के बारे में काफी लोग अभी तक अनजान थे. पूर्व जस्टिस चंद्रू न्यायपालिका से हटकर भी अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. जब वकील थे तब भी और अब जब वो रिटायर हो चुके हैं, तब भी वह अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज उठाते हैं. सामाजिक मुद्दों के खिलाफ आवाज उठाने और अन्याय के खिलाफ लड़ाई का उनका एक लंबा ट्रैक रहा है. उन्हें अभी भी न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में माना जाता है.
पूर्व जस्टिस चंद्रू ने आदिवासी समुदाय के लिए न्याय के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी है. सूर्या की फिल्म ‘जय भीम’ में उन्हीं के साल 1995 के असली केस की कहानी को दर्शाया गया है. जस्टिस चंद्रू, जो उस समय एक वकील थे, उन्होंने साहसपूर्वक मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. एक आदिवासी महिला, जो इरुलर समुदाय की थी, उसने पुलिस द्वारा हिरासत में दी गई यातना और अपने पति की पुलिस हिरासत में हुई मौत के खिलाफ अदालत में लड़ाई लड़ी. इस महिला को न्याय दिलाने के लिए जस्टिस चंद्रू ने हर मुमकिम मदद की थी.
सूर्या की इस फिल्म के बाद जस्टिस के. चंद्रू को अब भारत का हर निवासी जानने लगा है. चंद्रू एक कार्यकर्ता से वकील बने और फिर मद्रास हाई कोर्ट के जज बने. जज चंद्रू भारत के प्रतिष्ठित न्यायाधीशों में से एक हैं और उनका ऐतिहासिक ट्रैक रिकॉर्ड है. ऑनलाइन रिपोर्ट्स के अनुसार, एक जज के रूप में, उन्होंने कई ऐतिहासिक निर्णयों के साथ करीब 96,000 मामलों का निपटारा किया.
कुछ ऐतिहासिक निर्णयों में सामान्य कब्रिस्तान की उपलब्धता को लेकर दिया गया निर्णय शामिल है. उन्होंने इस मामले में फैसला सुनाया था कि जाति की परवाह किए बिना कब्रिस्तान सभी के लिए सुलभ होना चाहिए. उन्होंने जाति भेदभाव और आदिवासी समुदाय के खिलाफ लंबी जंग लड़ी है. सबसे खास बात ये है कि उन्होंने मानवाधिकारों के मुद्दों से संबंधित मामलों में महिलाओं, गरीब लोगों और कमजोर समुदायों से केस का कभी भी एक पैसा नहीं लिया.