ऐसा मैंने सुना है। एक समय तथागत बुद्ध सावत्थि में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार करते थे। तब धम्मिक उपासक पांच सौ उपासकों के साथ जहां थे, वहां गया। जाकर तथागत बुद्ध को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुए धम्मिक उपासक ने तथागत से गाथाओं में कहा ।
धम्मिक उपासक- “हे महाप्रज्ञावान गोतम! मैं पूछता हूं कि, किस तरह का सावक अच्छा होता है ? घर से निकल कर बेघर होने वाला अथवा घर में ही रहने वाला उपासक? ||1||
तुम्हीं देवों सहित लोक की गति और विमुक्ति को जानते हैं। तुम्हारे समान कोई दूसरा निपुण अर्थदर्शी नहीं है। लोग आपको ही अनुत्तर बुद्ध कहते हैं।। 2||
आपने धम्म के संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर के प्राणियों पर अनुकम्पा कर के उसे प्रकाशित किया। आप तो खुले छत वाले (=ज्ञानी), और समन्त चक्ख (चक्ष) हैं। सारे संसार में निर्मल रूप से सुशोभित हैं।। 3 ।।
ऐरावण नागराज भी, आप ‘जिन’ हैं, सुनकर आप के पास आया। वह भी आपके सग मंत्रणा कर, धम्म सुन प्रसन्न हो बहुत अच्छा कह चला गया।। 4।।
राजा वेस्सवण कुबेर भी धम्म पूछने के लिए आपके पास आया था। हे धीर! उसके सवाल का भी उत्तर आपने दिया, और वह भी आपकी बात सुनकर प्रसन्न हो चला गया।। 5 I I
वाद-विवाद करने वाले अन्य मतावलंबी हैं, आजीवक या निगण्ठ (जैन), वे सभी आपकी पञ्ञा (प्रज्ञा) के सामने तुच्छ हैं। जैसे कि तेज चलने वाले के सामने खड़ा व्यक्ति।।6।।
जितने भी वाद-विवाद करने वाले ब्राह्मण हैं, जिनमें कुछ बूढ़े ब्राह्मण भी हैं अथवा दूसरे कोई भी जो अपने को वाद-विवाद में निपुण मानते हैं, सभी अर्थ की बात पूछने के लिए आपके ही पास आते हैं।। 7।।
हे तथागत ! आप द्वारा उपदिष्ट जो यह धम्म है, वह उत्तम और सुखद है। हम सब उसी को सुनने के इच्छुक हैं। हे बुद्ध महान । पूछने पर हमें उसे बताएं।। 8।।
यहां सभी भिक्खु और उपासक सुनने को बैठे हैं। निर्मल बुद्ध के अवगत धम्म को वैसे ही सुनें, जैसे कि इन्द्र के उपदेश को देवता सुनते हैं”।
भिक्खु-धम्म
तथागत बुद्ध-
” भिक्खुओ ! मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें सुना रहा हूं। तुम धम्म और धुत (-धुतांग) को धारण करो। तुम्हारी चाल-ढाल (=इरियापथ) पब्बजित के अनुकूल हो और जो अर्थदर्शी तथा बुद्धिमान (भिक्खु) हैं, उनकी संगति करो।। 10 I I
भिक्खु को असमय में नहीं घूमना चाहिए। समय पर गांव में भिक्खाटन करे। असमय में घूमने वालों को आसक्तियां लग जाती हैं। इसीलिए असमय में बुद्ध नहीं घूमते हैं।। 11 ।।
रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श-जो प्राणियों को मोहित कर लेते हैं, इन बातों में इच्छा त्याग कर समय पर प्रात:रास (सुबह का भोजन) के लिए (गांव में) प्रवेश करे।।12।।
भिक्खु समय से प्राप्त भिक्खा को ले एकान्त में जा अकेले बैठे। वह अपने भीतर ही मनन करे। मन को बाहर न जाने दे और चित्त को संयत करके रखे।। 13।।
यदि वह किसी सावक या अन्य किसी भिक्खु से बातचीत करे, तो उत्तम धम्म की ही बात करें, न चुगली खाये और न दूसरे की निन्दा करे।। 14।।
कोई कोई वाद-विवाद किया करते हैं, उन अल्पज्ञानियों की हम प्रशंसा नहीं करते। इधर-उधर से आसक्तियां लग जाती हैं और उनका चित्त उन्हीं वाद विवादों में ही दर-दर तक जाता रहता है।। 15।।
बुद्ध का उत्तम प्रज्ञावाला सावक सुगत के उपदिष्ट धम्म को सुनकर भिक्खा विहार,
सयनासन, जल और संघाटी के मैल को धोना आदि बातों को विचारपूर्वक करे।। 16।।
इसलिए भिक्खा, सयनासन, जल और संघाटी के मैल को धोना आदि बातों में भिक्खु उसी प्रकार आसक्ति-रहित हो, जैसे कि कमल के पत्तों पर जल बिन्दु ” ।। 17 ।।
गृहस्थ-धम्म
“अब मैं तुम्हें गृहस्थ-धम्म बताता हूं, जैसा कि करने वाला सावक अच्छा होता है। जो सम्पूर्ण भिक्खु धम्म है, उसका पालन सपरिग्रही
(-गृहस्थ) से नहीं किया जा सकता।। 18।।
संसार में जो स्थावर और जंगम प्राणी हैं, न उनको जान से मारे, न मरवाये, और न तो उन्हें मारने की अनुमति दे। सभी प्राणियों के प्रति दण्ड त्यागी हो।। 19।।
तब दूसरे की समझी जाने वाली किसी चीज को चुराना त्याग दे, न चुराये, और न चुराने वाले को अनुमति ही दे। सभी प्रकार की चोरी को त्याग दे।। 20 ।।
जानकार पुरुष जलती हुई आग के गड्ढे की तरह अपब्बजित जीवन को छोड़ दे। पब्बजित जीवन का पालन न कर सकने पर भी पर (पराई) स्त्री का सहवास न करे।। 21 ।।
सभा या परिषद में जाकर एक दूसरे के लिए झूठ न बोले, न तो (स्वयं झूठ) बोले और न बोलने वाले को अनुमति दे। सब प्रकार के असत्य-भाषण को त्याग दे।। 22।।
जो गृहस्थ इस धम्म को पसन्द करता हो वह यह उन्मादक है’ ऐसा जानकर शराब का पान न करे, न पिलावे और न पीने वाले के लिए अनुमति दे।। 23 ।।
मूर्ख लोग मद के कारण बुरे कर्म करते हैं और दूसरे प्रमादित लोगों से कराते भी हैं। बुरे कर्म के घर को त्याग दो, जो उन्मादक है, मोहक है, और मूर्खों को प्रिय है।। 24 ।।
जीव-हिंसा न करे, चोरी न करे, झूठ न बोले और न शराब पिये। अपब्बजित जीवन और मैथुन से विरत रहे और रात्रि में विकाल भोजन न करे।। 25।।
आठ अंगों वाला (अट्ठांगिक-उपोसथ) न माला धारण करे, न गंध का सेवन करे, चौकी, भूमि या जमीन पर सोये-इसे उपोसथ कहते हैं। दुख पारंगत बुद्ध द्वारा यह प्रकाशित किया गया है।। 26 ।।
प्रत्येक पक्ष की चतुदशी, पूर्णिमा, अट्ठमी और प्रतिहार्य पक्ष को प्रसन्न मन से अट्ठांग उपोसथ का पूर्णरूप से पालन करना चाहिए।। 27 ।।
तब जानकार पुरुष सुबह उपोसथ ग्रहण कर अपनी शक्ति के अनुसार सद्धापूर्वक अनुमोदन करते हुए प्रसन्नता से भिक्खुसंघ को अन्न और पेय का दान दे।। 28।।
धम्म से माता-पिता का पोषण करे,
किसी धम्मिक कार्य में अपने को लगाये।
जो अप्रमत्त गृहस्थ इस व्रत का पालन करता है ।। 29 ।।
( संदर्भः सुत्तनिपात -धम्मिक सुत्त-
चूलवग्ग )