- पंकज श्रीवास्तव
भारत को ‘हज़ारों साल पुराना राष्ट्र’ बताने या समझने के आदी लोगों को यह जानकर झटका लग सकता है कि संविधान निर्माता की नज़र में भारत ‘राष्ट्र’ था नहीं, उसे ‘बनाना’ था। दरअसल, डॉ. आंबेडकर की राष्ट्र को लेकर समझ किसी निश्चित मानचित्र या राष्ट्रध्वज जैसे चिन्हों पर आधारित नहीं थी। उनकी नज़र में राष्ट्र तभी होता है जब वहाँ के रहने वालों के बीच ‘साझेपन’ का अहसास हो। हर व्यक्ति खुद को राष्ट्र का हिस्सा माने। मौजूदा घटनाओं को देखते हुए कह सकते हैं कि अगर मणिपुर में लगी आग की आँच से मैनपुरी का व्यक्ति दुखी हो तभी भारत को राष्ट्र कहा जा सकता है। अगर मणिपुर में हो रहे अत्याचार और अन्याय से देश के किसी अन्य हिस्से में ख़ुशी या सहमति है तो फिर इसे राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। सुख-दु:ख का साझा यानी ‘बंधुत्व’ ही राष्ट्र होने का आधार है।
डॉ. आंबेडकर की ज़बान से संविधान सभा का संकल्प बोल रहा था। आज़ाद भारत में सबको हिस्सेदारी का अहसास हो, इसलिए ही संविधान के स्वरूप को बेहद लचीला रखा गया। यही वजह है कि दलितों, आदिवासियों के लिए पहले दिन से आरक्षण की व्यवस्था की गयी और जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तर पूर्व के राज्यों के लिए स्वायत्तता से जुड़े विशेषाधिकार स्वीकार किये गये। केंद्र की सरकारों ने हमेशा यह बात ध्यान में रखी कि संगठित असंतोष की शक्ति को किसी भी तरह कुचलने के बजाय, उन्हें संविधान के दायरे में लाकर वार्ता का सम्मान दिया जाये। इसी समझ और नीति का नतीजा था कि संविधान सभा का बहिष्कार करने और ‘ये आज़ादी झूठी है’ का नारा देने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने संसदीय गणतंत्र को स्वीकारा और 1952 के आम चुनाव में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी। साठ के दशक तक अलग ‘तमिल राष्ट्र’ की माँग करने वाले द्रविड़ आंदोलन के नेताओं ने भारत के संविधान को स्वीकार किया, या कि 1 मार्च 1966 को ‘भारत से आज़ादी’ की घोषणा करने वाले लालडेंगा भारतीय संविधान की शपथ लेकर मिज़ोरम के मुख्यमंत्री बने।
अफ़सोस कि भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली केंद्र सरकार के दौर में भारतीय राज्य की यह संवेदनशीलता और लचीलापन ख़त्म होता नज़र आ रहा है। केंद्र सरकार ‘सभी पक्षों के प्रति न्याय’ करेगी- इस धारणा का लोप हो रहा है। मणिपुर इसका ज्वलंत उदारहण है जहाँ तीन महीने से आग लगी हुई है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप हैं। हाल ये है कि उनकी चुप्पी तुड़वाने के लिए विपक्ष को संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने की रणनीति बनानी पड़ रही है।
मणिपुर में बीजेपी की सरकार है। यानी वहाँ डबल इंजन की सरकार है। पर वह पूरी तरह से बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की प्रतिनिधि नज़र आ रही है। अल्पसंख्यक कुकी समुदाय को न केंद्र से सहानुभित मिल रही है और न राज्य सरकार से। कोढ़ में खाज ये है कि बीजेपी का प्रचारतंत्र कुकी समुदाय को देशद्रोही से लेकर ड्रग तस्करी में लिप्त बता रहा है, जिस पर कठोरता से नियंत्रण करना जायज़ है। इस प्रचार का उत्तर भारत में असर भी पड़ रहा है। सोशल मीडिया में कुकी समुदाय के प्रति नफ़रत जताते हुए मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के ख़िलाफ़ कथित षड्यंत्रों की कहानियों की बाढ़ है।
कथित राष्ट्रवादियों की ‘राष्ट्रीय भावना’ का हाल ये है कि दो कुकी महिलाओं की नग्न परेड को लेकर शर्मिंदा होने के बजाय इस वीडियो के वायरल होने की टाइमिंग पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। इसे मोदी सरकार के ख़िलाफ़ षड्यंत्र बताया जा रहा है।
भारत इस समय जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है, ऐसे में मोदी सरकार के इस रवैये से दुनिया भर में हैरानी है। अमेरिका और यूरोप के मीडिया में मणिपुर सुर्खियों में है। जिस अमेरिका में महीने भर पहले प्रधानमंत्री मोदी के स्वागत में ढोल बजवाये गये थे वहाँ कैलीफोर्निया, मैसाचुसैट्स और न्यूजर्सी में मणिपुर में सैकड़ों चर्च जलाने और ईसाई कुकी समुदाय पर हो रहे अत्याचार का सवाल उठाते हुए प्रदर्शन हुए। ये प्रदर्शन नॉर्थ अमेरिकन मणिपुर ट्राइबल एसोसिएशन (NAMTA), इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC) और आंबेडकर किंग स्टडी सर्किल जैसे कई एडवोकेसी संगठनों के आह्वान पर हुए। भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से दिये गये आंतरिक मामले के तर्क को ठुकराते हुए अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने मणिपुर को लेकर चिंता जताते हुए बयान जारी किया है।
यूरोपीय संसद पहले ही प्रस्ताव पारित कर चुकी है। यह भारत की नयी छवि है जो अतीत में दुनिया भर को सद्भावना और मानवाधिकार का पाठ पढ़ाने वाले भारत की छवि से बिल्कुल उलट है। जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं की दूरदृष्टि और संविधान के संकल्पों के ज़रिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की इस बात को हास्यास्पद साबित कर दिया था कि “भारतीयों में शासन करने की योग्यता नहीं है। और अगर भारत को स्वतंत्र कर दिया जाये तो ये देश बिखर जाएगा।”
कहा जाता है कि बीजेपी की वैचारिक प्रेरणा आरएसएस लंबे समय से उत्तरपूर्व में काम कर रहा है। मणिपुर का हाल बताता है कि उसने इतने दिनों तक क्या ‘काम’ किया है। धर्म के आधार पर ‘हम’ और ‘वे’ में समाज को बाँटने की कला में आरएसएस सिद्धहस्त है। इसी का नतीजा है कि कल तक जो लोग ‘आदिवासी अस्मिता’ के प्रश्न पर एकजुट होते थे आज वे धर्म के आधार पर बँट चुके हैं। अल्पसंख्यक ईसाइयों को देशद्रोही समझने के विचार ने वहाँ गृहयुद्ध जैसी स्थिति ला दी है। बँटवारे की इस नीति का नतीजा है कि मिजोरम जैसे राज्यों से मैतेई लोगों को निकाले जाने की मुहिम शुरू हो गयी है। पूरा उत्तरपूर्व ही अशांत होने के कगार पर है। इससे उत्तरपूर्व को अपनी विशिष्टता के साथ भारतीय राज्य के प्रोजेक्ट को गहरा धक्का लगा है। अलगाववाद का नया दौर शुरू होने की आशंकाएँ जतायी जा रही हैं।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा के उसी भाषण में कहा था कि “हमारे पास विविध और विरोधी राजनीतिक पंथों वाले कई राजनीतिक दल होंगे। मुझे नहीं पता कि भारतीय देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? लेकिन इतना तो तय है कि अगर पार्टियाँ धर्म को देश से ऊपर रखेंगी तो हमारी आज़ादी दूसरी बार ख़तरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खो जाएगी। इस स्थिति से हम सभी को दृढ़तापूर्वक सावधान रहना चाहिए। हमें अपने ख़ून की आख़िरी बूँद से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए दृढ़ संकल्पित होना चाहिए।”
इस भाषण में छिपी चेतावनी हर उस शख्स को समझनी चाहिए जो भारत को सचमुच एक राष्ट्र बनाना चाहता है। सिर्फ़ राष्ट्रवादी होने का तमग़ा लगा लेने से राष्ट्र नहीं बना करते, ख़ासकर जब इस तमग़े से किसी समुदाय के घाव कुरेदे जाते हों।
साभार :: सत्य हिंदी