तथागत भगवान बुद्ध प्रतिदिन सुबह भिक्षा के लिए निकल जाते थे। एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिऐ एक किसान के यहां पहुंचे । तथागत को भिक्षा के लिये आया देखकर किसान के मन में विचार आया की मैं मेहनत से आनाज बोटा हूँ और यह तपस्वी भिक्षा मांगकर अपना उदर्निर्वाह करता है. थोड़ी उपेक्षा से वह किसान भगण बुध्द से बोला श्रमण मैं हल जोतता हूं और तब खाता हूं ,तुम्हें भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए और तब खाना चाहिऐ।
भगवान बुद्ध मुस्कुराए और कहा महाराज मैं भी खेती ही करता हूं इस पर किसान को जिज्ञासा हुयी, उसने कहा “गौतम मैं न तुम्हारा हल देख सकता हूँ और ना बैल और न ही खेती के स्थल। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती ही करते हैं। आप कृपया अपनी खेती के संबंध में समझाएँ ।
बुद्ध ने कहा महाराज मेरे पास श्रद्धा का बीज, तपस्या रूपी वर्षा ,प्रजा रूपी जोत और हल है, पापभीरूता का दंड है, विचार रूपी रस्सी है ,स्मृति और जागरूकता रूपी हल की फाल और पेनी है , मैं बचन और कर्म में संयत रहता हूं । मै अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूं और आनंद की फसल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूं। अप्रमाद मेरा बैल है जो बाधाऐं देखकर भी पीछे मुंह नहीं मुडता है । वह मुझे सीधा शान्ति धाम तक ले जाता है । इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूं। भगवान का उत्तर सुनकर किसान को समझ आया की बुद्ध के प्रति उसका विचार कितना गलत था. और दुःख मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उसने भगवान को अपना गुरु स्वीकार किया।