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वैश्विक गुरु भगवान बुद्ध का प्रथम धम्म उपदेश

वैश्विक गुरु भगवान बुद्ध का प्रथम धम्म उपदेश

विश्वगुरु गौतम बुद्ध ने जिस दिन ज्ञान पाए थे, वह बुद्ध पूर्णिमा है और जिस दिन ज्ञान दिए थे, वह गुरु पूर्णिमा है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गौतम बुद्ध ने सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अपने प्रथम पाँच शिष्यों को शिक्षा प्रदान की थी, यही दिन गुरु पूर्णिमा है।विश्वगुरु ने तब के जिस आषाढ़ पूर्णिमा को ज्ञान दिए थे, वह आज का जुलाई माह है, इसी माह में बौद्धों का वर्षावास ( पठन – पाठन ) आरंभ होता है।भारत के विश्वविद्यालयों में जुलाई से पठन – पाठन का नया सत्र प्रारंभ होने का रिवाज की जड़ यही बुद्धिस्ट परंपरा है।

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने इस दिन 29 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन का त्याग किया था. आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, क्योंकि बोधगया में सम्यक संबोधि (enlightenment) प्राप्त करने के पश्चात् सन् 528 ई. पू. इसी दिन सारनाथ में स्थित इसिपत्तन मृगदाय वन में पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रथम धम्म प्रवचन दे कर धम्म चक्र प्रवर्तन सूत्र की प्रारब्धि की थी. धम्मचक्क पवत्तन सुत्त में बुद्ध के उपदेशों का सार समाया हुआ है और इस सुत्त को समझे बिना बुद्ध के उपदेशों को सही तरीके से आत्मसात् करना मुश्किल है.बुद्ध ने पांच परिव्राजकों (disciples) को संबोधित करते हुए कहा- भिक्खुओं, जो परिव्रजित हैं उन्हें दो अतियों (excesses) से बचना चाहिए-पहली अति है कामभोगों में लिप्त रहने वाले जीवन की, यह कमजोर बनाने वाला है.दूसरी अति है आत्मपीड़ा प्रधान जीवन की जो कि दुःखद होता है, व्यर्थ होता है और बेकार होता है.इन दोनों अतियों से बचे रहकर ही तथागत ने मध्यम मार्ग (middle path) का अविष्कार किया है.

यह मध्यम मार्ग साधक को अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है, बुद्धि देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, संबोधि देने वाला है और पूर्ण मुक्ति अर्थात निर्वाण तक पहुंचा देने वाला है.यह मध्यम मार्ग आर्य आष्टांगिक मार्ग है. इस आर्य आष्टांगिक मार्ग के अंग हैं:1. सम्यक् दृष्टि, 2. सम्यक् संकल्प, 3. सम्यक् वचन, 4. सम्यक् कर्मान्त, 5. सम्यक् आजीविका, 6. सम्यक् व्यायाम,7. सम्यक् स्मृति, 8. सम्यक् समाधि.बुद्ध ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा- भिक्खुओं, पहला आर्यसत्य यह है कि जीवन में दुःख है- जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा आना दुःख है, बीमारी दुःख है, मुत्यु दुःख है, अप्रिय चीजों से संयोग दुःख है, प्रिय चीजों से वियोग दुःख है, मनचाहा न होना दुःख है, अनचाहा होना दुःख है, संक्षेप में पांच स्कंधों से उपादान(अतिशय तृष्णा का होना) दुःख है. अब हे भिक्खुओं, दूसरा आर्यसत्य यह है कि इस दुःख का कारण हैः राग के कारण पुनर्भव अर्थात पुनर्जन्म होता है, जिससे इस और उस जन्म के प्रति अतिशय लगाव पैदा होता है, यह लगाव काम-तृष्णा के प्रति होता है, भव-तृष्णा के प्रति होता है और विभव तृष्णा के प्रति होता है;अब हे भिक्खुओं, तीसरा आर्यसत्य है: दुःख निरोध आर्यसत्य, इस तृष्णा को जड़ से पूर्णतः उखाड़ देने से इस दुःख का, जीवन-मरण का जड़ से निरोध हो जाता है;और अब हे भिक्खुओं, चौथा आर्यसत्य है: दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख से मुक्ति का मार्ग), इस दुःख को जड़ से समाप्त किया जा सकता है और जिसके लिए तथागत ने आठ अंगों वाला आर्य आष्टांगिक मार्ग खोज निकाला है जो साधक को सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि प्रदान करता है

.इस प्रकार हे भिक्खुओं, इन चीजों के बारे में मैंने पहले कभी सुना नहीं था, मुझमें अंतर्दृष्टि जागी, ज्ञान जागा, प्रज्ञा जागी, अनुभूति जागी और प्रकाश जागा.बुद्ध ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा:हे भिक्खुओं जब मैंने अपनी अनुभूति पर इन चारों आर्य सत्यों को इनके तीनों रूपों के साथ, और उनकी बारह कड़ियों के साथ, पूर्ण रूप से सत्य के साथ जान लिया, पूरी तरह समझ लिया और पूरी तरह अनुभव कर लिया, उसके बाद ही मैंने कहा कि मैंने सम्यक् सम्बोधि प्राप्त कर ली है, इस तरह मुझमें ज्ञान की अंतर्दृष्टि जागी, मेरा चित्त सारे विकारों से मुक्त हो गया है. हे भिक्खुओं जब मैंने अपने स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभवों से और पूर्ण ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ इन चारों आर्यसत्यों को जान लिया, यह मेरा अंतिम जन्म है अब इसके बाद कोई नया जन्म नहीं होगा.बुद्ध के इन चार आर्यसत्यों और आर्य मार्ग को सुनकर कौंडन्न के धर्मचक्षु जागे और उन्हें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है, जिसका उत्पाद होता है उसका व्यय होता है, कौंडन्न के चेहरे के भावों को देखकर बुद्ध ने कहा- कौंडन्न् ने जान लिया. कौंडन्न ने जान लिया. इसलिए कौंडन्न का नाम ज्ञानी कौंडन्न पड़ गया. बुद्ध के इस उपदेश से कौंडन्न के अंदर भवसंसार चक्र, धम्म चक्र में परिवर्तित हो गया, इसलिए इस प्रथम उपदेश को धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहते हैं. पांचो भिक्खुओ ने बुद्ध को साष्टांग प्रणाम किया और उन पांच भिक्खुओं को अपना शिष्य स्वीकार करने की प्रार्थना की, बुद्ध ने उनको अपना शिष्य स्वीकार किया इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है।बुद्ध ने यह उपदेश आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन दिया था । आषाढ़ पूर्णिमा पवित्र दिन माना जाता है. इस पूर्णिमा से भिक्खुओं का वस्सावास (वर्षावास) अर्थात मानसून के महीने में एक ही स्थान पर निवास करना) आरंभ होता है।

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