रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने एनुअल स्टैटिकल रिपोर्ट पेश की है। इसमें नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (NPA) का भी जिक्र है। 2014 से लेकर 2020 यानी मोदी के 6 सालों में NPA की कुल रकम 46 लाख करोड़ रही।
बीते दशक में 4 साल मनमोहन तो 6 साल मोदी सरकार रही। मनमोहन सरकार के आखिरी 4 साल (2011-2014) के बीच NPA की बढ़ने की दर 175% रही, जबकि मोदी सरकार के शुरुआती 4 साल में इसके बढ़ने की दर 178% रही। प्रतिशत में ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा है, लेकिन इतना जान लीजिए कि मनमोहन ने NPA को 2 लाख 64 हजार करोड़ पर छोड़ा था और मोदी राज में ये 9 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है। लेकिन आप सोच रहे होंगे कि इससे हमें क्या? न, इस मुगालते में मत रहिए! ये मामला सीधे आपसे जुड़ा हुआ है। इसके लिए आपको NPA और इससे जुड़े आंकड़ों को इत्मिनान से समझना होगा।
जब कोई व्यक्ति या संस्था किसी बैंक से लोन लेकर उसे वापस नहीं करती, तो उस लोन अकाउंट को क्लोज कर दिया जाता है। इसके बाद उसकी नियमों के तहत रिकवरी की जाती है। ज्यादातर मामलों में यह रिकवरी हो ही नहीं पाती या होती भी है तो न के बराबर। नतीजतन बैंकों का पैसा डूब जाता है और बैंक घाटे में चला जाता है। कई बार बैंक बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं और ग्राहकों के अपने पैसे फंस जाते हैं। 2010-11 से लेकर 2013-14 के बीच 4 सालों में, मनमोहन सरकार में 44 हजार 500 करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हुआ। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद पहले ही साल, यानी अकेले 2014-15 में 60 हजार करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हो गया। 2017-18 से तो जैसे मानो मोदी सरकार ने मेहरबान होने का बीड़ा ही उठा लिया हो। 2017-18 से लेकर 2019-20 के बीच, सिर्फ तीन सालों में मोदी सरकार में 6 लाख 35 हजार करोड़ से भी ज्यादा का लोन राइट-ऑफ हुआ।