समय बीतता चला जाता है | देखते -देखते उम्र ढल जाती है | इस संसार मे इन्सान नामक गजब का प्राणी है की, न जाने अंजाने मे कितने बंधन मे स्वयं को जकड़ लेता है | फिर भी स्वतंत्र होने का नकाब अपने चहरे पे हमेशा लगाके रहता है | नकाब भलेही दूसरे ना देखें, पर स्वयं का चंचल चित्त, अस्थिर और अशांत मन, और रातदिन उसकी भागदौड़ बताती है की उस इन्सान का जीवन किस मोड़ मे खड़ा है, और वह क्या चाहता है | जिसे सही मे मन की स्वतंत्रता का आभास होता है, उसके जीवन मे अनोखी क्रांति घटती है |
ऐसा इन्सान अपनी जीवन यात्रा भीड़ मे होकर भी अकेले करने के लिए साहस जुटाता है, हिम्मत करता है | भलेही, भीड़ की तकलीफ शरीर की तौर सहनी पड़े , पर अपने मन को वह हमेशा भीड़ मे भी अकेला रखने का प्रयास करता है | और ये आम बात भी नही होती | बड़ी कठीन बात होती है | क्योंकी, माहोल, परिसर, लोगो की रहन सहन बहोत सारी ऐसी चीजे होती है की जो इन्सान के चित को प्रलोभित करनेवाली होती है | यही जीवन का सत्य भगवान के समय न जाने कितने अनगिनत लोगो ने जाना और वे भगवान ने बताये हुए मार्ग पर चले| उन्ही मे से रट्ठपाल का उदाहरण हमें जीवन के चार सत्य को अवगत कराता है | रट्ठपाल ने जब अपने ग्रामवासी मित्रो के साथ भगवान की धम्मवाणी सुनी तो उसके जीवन मे अनोखी क्रांति घटी, और सोचने लगा की जो धर्म उपदेश तथागत ने किया है वह साधारण तो बिलकुल ही नही है | इस संसारचक्र को तोडना है तो घर मे रहकर आसान नही है | उसके मन मे उसी समय गृहत्याग का भाव जागा | लोग अपने अपने घर की तरफ चल दिए | लेकीन, रट्ठपाल रास्ते से मुड़कर फिर से भगवान की तरफ चलने लगा | उस समय उसके मन मे ना किसी ऐश्वर्य, रिश्ते, आदि का विचार था | बस, विचार था तो इस संसारचक्र को तोड़ने का | उस समय उसके साथ कितनी गहरी विपश्यना घटीत हुयी थी, हम सोच भी नही सकते |
अक्सर यही होता है की विपश्यना ना कभी की जाती है, और ना ही किसीको सिखाई जाती है| वह तो इन्सान के भीतर घटीत हो जाती है, उतर जाती है | जिसके कारण, इन्सान के भीतर एक विराटसा वैराग्य जागता है, और उसकी जीवनयात्रा सीधी इस संसारचक्र को तोड़ने की और मूड जाती है, और अपनी मुक्ती की दिशा तय हो जाती है | रट्ठपाल के साथ भी यही हुवा | वह रास्ते से लौटकर भगवान के पास गया और उसने प्रवज्जा की भगवान से याचना की | माता पिता की आज्ञा न होने के कारण उसको उस दिन प्रवज्जा नही मिली | पर घर जाकर उसने बहोत संघर्ष करके माता पिता की आज्ञा पायी और बाद मे उसकी प्रवज्जा और उपसम्पदा पाकर अर्हत्व की प्राप्ति की |
इसके बाद का प्रसंग बड़ा रोचक है | पिता उपर के मंजिल मे है, और अब भिक्खु के रूप मे रट्ठपाल अपने ही पूर्व पिता के घर के सामने भिक्षापात्र लेकर खड़े है | एक पिता होकर भी अपने पुत्र को नही पहचान पाया और उसने उसे देखकर मन मे उसके प्रति घ्रिणा का भाव उत्पन्न किया | लेकीन, दासी ने उनकी आवाज से उन्हें पहचान लिया और बाद मे सब जान गए | एक दासी होकर भी आवाज से पूज्य भिक्खु रट्ठपाल को पहचान गयी | पर एक पिता होकर भी वह उन्हें पहचान नही पाया | संसार मे अक्सर यही होता है | सीधे साधे इन्सान इंसानियत को पहचान सकते है, जान सकते है | क्योंकी उसका चित्त कम बंधनो से जकड़ा हुवा होता है | जिसके कारण उसके भीतर धर्म की किरण प्रकाशित होने की संभावना रहती है | लेकीन, जिसका चित्त जितने अधिक बंधनो से जकड़ा हुवा होगा उसके जीवन मे धर्म की किरण प्रकाशित होने की संभावना बहोत कम होती है | क्योकि, ऐसे लोगो की करनी और कथनी एक जैसी कभी नही होती | वे होते कुछ, और दिखाते कुछ है |
जब पूज्य भिक्खु रट्ठपाल को अपने पूर्व पिता ने कुछ सवाल पूछे थे, उन्ही सवालों के जवाब के रूप मे उन्होंने इन जीवन के चार सत्य को उजागर किया था | वे इस प्रकार है :- 1) इस जगत ( जीवन )मे ऐसी कोई चीज नही है के जिस पर हम अपना कब्ज़ा बनाये रख सकेंगे | 2) इस संसार की हर चीज अस्थिर है, परिवर्तन होना इसका अपना स्वभाव है | 3) यह पूरा संसार ( जीवन ) ही अनित्य है, नित्य यहाँ कुछ भी नही है | 4) इस संसार (जीवन )को एक न एक दिन छोड़ना है | ( मज्झिम निकाय :- रट्ठपाल सुत्त, सारांश रूपी ) जीवन के इस चार सत्य का सबंध हर व्यक्ति के साथ घटीत होता है | बस, फर्क इतना है के जो इसे अपने जीवन मे उतारते है, तो उस व्यक्ति के जीवन की उलझने धीरे धीरे ही क्यों न पर ख़तम होने लगती है | और जो व्यक्ति इस चार सत्य को नही जानता, या फिर कोई जानता भी हो, लेकीन अपने जीवन मे नही उतारता तो उसके जीवन की उलझने और भी बढ़ती जाती है | जिसके कारण, उसका पूरा जीवन ही बेहोशी से भर जाता है | और जहाँ बेहोशी हो, वहां होश कहाँ होता है? और जहाँ होश ही नही, वहां सही -गलत, अच्छाई -बुराई की क्या पहचान होंगी? आदरणीय भिक्खुणी बुद्धकन्या